एक दिन फैजाबाद वाले अंकल जी
यानि कि उमा शंकर श्रीवास्तव जी के साथ मैं डा0 अनिल गौड़ के पास बैठा था।
अनिल ने उसी समय फक्कड़ बाबा के दर्शनार्थ जाने को कहा। मैं उसी समय फक्कड़ बाबा
के पास पहुंचा। शहर से बाहर गाँव के एक छोटे से कमरे में घुसते ही मेरी दृष्टि जिस व्यक्ति पर पड़ी] उन्हें
देख कर मैं चौंक पड़ा। यह भी ठीक उसी तरह के थे जिस तरह ऋषिकेश वाले सन्त या
नेपाली बाबा थे। उनमें और इनमें मैंने जो समानता देखी थी वह यह
थी कि इनका भी चेहरा बहुत हद तक उनसे मिलता था। बात चीत का ढंग। रंग, रूप, जटा सब कुछ वैसा ही तो था।
चटार्इ के स्थान पर अत्यन्त मैली दो पुरानी बोरियाँ तथा लकड़ी के स्थान पर पीतल का
कमण्डल था। यहाँ भी एक समय ही भोजन ग्रहण करने की परम्परा थी। यहाँ एक नर्इ बात जो
मैंने अनुभव की वह था बाबा का पान तम्बाकू का सेवन।
मुझे देखते ही उनका पहला वाक्य
यह था। आओ बच्चा! बहुत घूम आए, बैठो। मैं उनके निकट फर्श पर
बैठ गया। चूल्हे से निकले धुएं ने पूरे कमरे को काला कर रखा था। बाबा ने कहा- अभी
कुछ दिन बाहर कहीं जाना नहीं। आते रहना। उस दिन तो मैं चला आया। घर आकर मैं सारा
दिन तथा देर रात तक ऋषिकेश वाले सन्त जी का वह वाक्य याद करता रहा- मेरे बाद
समय-समय पर तीन सन्त तुम्हें मिलेंगे जो कि तुम्हारा मार्ग दर्शन करेंगे। मैं यही
सोचता रहा कि कहीं यह दूसरे तो नहीं हैं। उस दिन के बाद मैं अक्सर उनके पास जाता
रहा। मै जब भी उनके पास अकेले होता तो वे ध्यान साधना के विषय पर ही बात करते।
उन्होंने जो कुछ सिखाया निसन्देह वह पहले सिखाए गए अभ्यासों की अगली कड़ी थे। मैंने उनसे दीक्षा लेने का मन बना लिया था। एक बार की बात
है मैं फक्कड़ बाबा के पास गया। मै उनका चित्र लेना चाहता था। मैंने जब आग्रह किया तो वे मेरे
आग्रह पर मान गए थे। बाबा ने मेरे सिर पर आशीर्वाद देते हुए अपना प्रथम चित्र
खिंचवाया था। रामू दादा द्वारा लिया गया वह चित्र आज भी कम्प्यूटर के अतिरिक्त
मेरे मन मसितष्क में अंकित है।
एक दिन की बात है, मैं और फ़ैज़ाबाद वाले अंकल जी नीचे फर्श पर बैठे थे।
बाबा लकड़ी के तख्त पर बैठे थे। बाबा अनाप शनाप न जाने क्या क्या बोले जा रहे थे।
किसी की समझ में एक शब्द भी नहीं आ रहा था। अचानक मेरी तरफ मुंह करके एक लीवर
टानिक का खाली डिब्बा देते हुए बोले- मैं बड़ा परेशान हूँ। यह दवा लेकर आओ। मैं
अंकल जी के साथ तमाम दवाखानों में गया। जिसे भी वह डिब्बा दिखाता वह यही कहता-
इससे पहले हमने कभी इस दवा का नाम भी नहीं सुना। निराश होकर हम लौट आए। बाबा को
बताया कि दवा नहीं मिली। उनसे जब जानना चाहा कि आपको परेशानी क्या है ? आप बताएं तो हम दूसरी दवा ले आएं। उन्होंने जो
कारण बताया उसे सुनकर सब हंस दिए लेकिन मैं बहुत गम्भीर हो गया था।
वह मेरी ओर देखकर बड़बड़ाने
लगे- लीवर खराब हो गया है। अभी दो महीने भी तो नहीं बीते कि पिछले सप्ताह मुझे शौच
के लिए जाना पड़ा। अब मैं यहाँ नहीं रहूंगा। अब मैं तीर्थ करने जाना चाहता हूँ।
यहाँ सब कुछ बेकार है। र्इश्वर को मत भूलो। उसे याद रखना। क्या योगी और क्या भोगी, सबको जाना है। क्या गुरु और क्या चेला। सबको
जाना ही जाना है। उसके बाद वो मेरे चेहरे पर दृष्टि टिका कर बोले- दीक्षा वीक्षा हो चुकी- जैसा जिसने बताया, करते जाओ, करते जाओ। इसी बीच कुछ पलों के
लिए मेरी दृषिट जैसे ही उनकी दृष्टि से मिली। मेरे पूरे बदन में
जैसे बिजली का करन्ट लग गया था। शरीर की एक-एक नस में विद्ध्युतीय तरंगों के प्रवाह को मैंने स्पष्ट महसूस किया था। उन्होंने मेरे सिर पर
हाथ रख कर मुझे आशीर्वचन दिए। बाद में मुझे लोगों ने बताया कि यह पहला अवसर है जब
बाबा ने किसी के सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया हो।
घर आकर मैं सोचने लगा कर्इ-कर्इ सप्ताह शौच के लिए न जाना तो ऋषिकेश वाले सन्त
जी के स्वभाव जैसा था। ऋषिकेश वाले सन्त जी के अनुसार यह मुझे दूसरे सन्त मिले थे।
यह मुझे दीक्षा कैसे दे सकते थे। मैं अपने लेखकीय कार्य हेतु भ्रमण पर निकल गया।
कुछ ही दिनों बाद बलरामपुर से डा0 अनिल गौड़ ने फोन से सूचना
देते हुए फक्कड़ बाबा के निधन का समाचार दिया। मैंने मन ही मन उनके चरण स्पर्श
किए। आज मुझे उनके तीर्थ जाने की बात समझ आ गर्इ थी।
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