अन्तस की यात्रा

Dedication : This blog is dedicated tothose great spirits(Sants), who following the tradition of Guru Shishya, deemed me worthy of attention and introduced me to PRAN DHYAN, the method of simplest and highest form of meditation. Where direct and indirect blessings are always with me, by the path shown by the them. With the effect that I guide and sport those who arementally disturbed in some forms and are in search of peace. In life through positive thinking and meditation I have come back to my self. If you like tocome, you’re. Note: I only show you the way, you only have to walk. You will only receive sensations. Come to thy self increase your self power. click here for English version


समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।
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Thursday 15 March 2012

स्वयं का अध्ययन


स्वयं का अध्ययन

हम स्वयं का अध्ययन कैसे करें, कहाँ से प्रारम्भ करें] कृश्ण मूर्ति कहते हैं- ßदर असल केवल परस्पर संबंधों के भीतर झांककर ही मैं स्वयं का निरीक्षण कर सकता हूँ, क्योंकि आपसी संबंधों का ही दूसरा नाम तो जीवन है। मेरा अस्तित्व स्वयं की सीमा में सिमटा हुआ नहीं है। मेरे अस्तित्व का फैलाव मेरे संबंधों में है] लोगों के साथ मेरा संबंध, वस्तुओं विचारों और स्थानों के साथ मेरा संबंध। जब मैं लोगों के साथ अपने संबंध का एवं बाहरी और भीतरी चीजों के साथ अपने संबंध का अध्य~यन करता हूँ] तभी वास्तविक अर्थों में मैं स्वयं को समझना आरम्भ करता हूँ। वस्तुत: जैसा मै हूँ, वैसा ही स्वयं को समझना, न कि काल्पनिक्ता से कि जैसा मैं बनना चाहता हूँ।Þ

यहां यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सारे मानसिक एवं बाá फसाद तथा असंतोष की जड़ें इन्ही सम्बन्धों में कही छिपी है। क्यों कोर्इ किसी से विश्वासघात करता है, क्यों कोर्इ किसी के लिए अपने प्राणों तक को न्यौछावर कर देता है। क्यों कोर्इ किसी से चिपका रहना चाहता है और क्यों कोर्इ किसी की सूरत भी नहीं देखना चाहता। क्यों हम किसी के गुलाम है क्यों किसी पर शासन करना चाहते हैं, क्यों हम किसी से घृणा या द्वेष करते हैं। स्वय्म को केन्द्र में रखकर विचार करें, विष्लेशण करें तो उत्तर प्राप्त हो जाता है। संबंधों से उत्पन्न राग, द्वेष और विषाद से मुक्त होकर ही शांति अथवा मोक्ष की प्राप्ति संभव है। परन्तु मोक्ष न तो रिश्तों का अंत है न ही विच्छेदन। जिन जीवात्माओं के साथ हम रहते चले आये हैं उनके साथ रहना हमें सुखद लगता है। यह रिश्ता घृणा, द्वेष या मोह का नहीं है। यह विशुद्ध प्रेम का रिश्ता है। प्रलय आने पर भी यह खत्म नहीं होता। वैसे ही जैसे बूंद समुद्र में गिरकर भी अपना अस्तित्व नहीं खोती। बूंद का समुद्र से एक अक्षुण्ण संबंध है। मेरा आपसे और हमारा सागर से एक गहरा रिश्ता है। मोक्ष प्राप्ति पुनर्जागरण, पुनर्जीवन हैं।

Wednesday 8 February 2012

अपने को पहचानिए


अपने को पहचानिए

संसार के मनुष्यों को मोटे-मोटे तौर पर पाँच वर्गो में विभाजित किया जा सकता है - पहला वर्ग उन मनुष्यों का है जो अपने सुख-दुख में हँसते-रोते-गाते, कोसते, लड़ते, झगड़ते अपना जीवन बिता रहे है। उन्हे मैथुन, भोजन, वस्त्र से अधिक की न ही इच्छा है और न ही अपने जीवन-वृत से बाहर आने का कोर्इ चाव। दूसरे प्रकार की श्रेणी पहले प्रकार से कुछ अधिक उन्नत हैं, साफ-सुथरी, शिक्षित या अर्धशिक्षित हैंवे अपने दु:खों के प्रति जागरूक नहीं हैं परन्तु उसकी पीड़ा से कातर होकर पीड़ा के मूल कारणों से अनभिज्ञ किसी र्इश्वर, देवी देवता के चरणों में माथा रगड़ते, कान पकड़ते या तंत्र-मंत्र-यंत्र की विधाओं मे पुजारी पंडितों के जाल में फँसे अपने दु:खों से मुक्त होने का उपाय ढूँढ रहे हैं। अपने कष्टों के लिए र्इश्वर को अथवा अन्य किसी को दोषी मानते हैं। तीसरे वर्ग में वे लोग हैं जो विद्वान हैं। धर्मशास्त्रों का जिन्हें अच्छा ज्ञान है। बात - बात में शास्त्रार्थ पर उतरने को अधीर हो जाते है। उपरोक्त दोनों वर्गो की भाँति ये भी दु:ख से विहल है। मन के स्वभाव पर बहस करते हैं पर मन  इनके वश में नहीं। ध्यान पर चर्चा करते हैं पर ध्यान के एक पल का भी अनुभव नहीं। संस्कार उनसे वह सब कुछ करवा लेता है, जिसे वे जानते हैं कि वह पाप है या अकरणीय कर्म है। ऊपर से आदर्शवादी दिखते हैं परन्तु संवेदनशीलता विहीन हैं। यह श्रुत ज्ञानियों का वर्ग है। चौथी श्रेणी के लोग उपरोक्त तीनों से अधिक उन्नत हैं। जीवन में कलात्मक हैं] सृजनात्मक है और संवेदनशीलता इनका प्रमुख गुण है। इन्होने दु:ख के मूल स्वरूप और स्रोत को जान लिया है। इसलिए ये संस्कार बीज को ही नष्ट करने में लगे हुए है। यह श्रेणी ध्यानियों की, चिन्तन, मनन करने वाली आत्म विश्लेष्कों की श्रेणी है। ये प्रतिपल या तो सजग हैं या फिर सजगता के अभ्यास में रत हैं। अपने व्यवहार के प्रति, अपने विचार के प्रति इन्होने श्रुत ज्ञान को अपने जीवन में उतार लिया है। ऐसे ज्ञान को बुद्ध भावित प्रज्ञा कहते है। पाँचवीं श्रेणी उन विशिष्ट महामानवों और महात्माओं की है जिन्होने जीवन के चक्र से स्वयं को मुक्त कर लिया है और मानव के उत्थान के प्रतिसतत जागरूक और प्रतिबद्ध है। ये उच्चकोटि के महानयक, हमारे संरक्षक और मार्गदर्शक है। पाँचवीं श्रेणी के महानायक भी उसी रास्ते से चलकर वहाँ पहुँचे जहाँ आज हम खड़े हैं। हमें भी इन्ही रास्तों से चलकर वहां पहुंचना है जहां आज वे खड़े हैं। उन्होंने मन की उन्ही बाधाओं को पार किया है, जो आज हमारे मार्ग में अडिग शिला बनकर खड़ी है। रास्ता पार करना कठिन तो है परन्तु असम्भव नहीं। मन की अकथ कथा कड़ी कहत कबीर समुझाय जो कोर्इ मन को समझ ले वाको काल न खाय। तो आइये सदियों से बन्द मन के द्वार को खोलें और भीतर प्रवेश करें और देखें कि पूर्व जन्मों से आज तक क्या क्या अनुभव या संस्कार वहाँ हमने जमा कर रखे हैं। मन के द्वार को खोलना, भीतर जाना, संग्रहीत वस्तुओं का निरीक्षण करना, उपयोगी-अनुपयोगी, सत-असत, कुशल-अकुशल, आवश्यक-अनावश्यक की छटनी करना, अनुपयोगी को स्टोर से बाहर निकाल कर फेंक देना- यही ध्यान है। 

Tuesday 31 January 2012

बाबा ने कहा- यहाँ सब कुछ बेकार है, अब मुझे तीर्थ जाना है।

एक दिन फैजाबाद वाले अंकल जी यानि कि उमा शंकर श्रीवास्तव जी के साथ मैं डा0 अनिल गौड़ के पास बैठा था। अनिल ने उसी समय फक्कड़ बाबा के दर्शनार्थ जाने को कहा। मैं उसी समय फक्कड़ बाबा के पास पहुंचा। शहर से बाहर गाँव के एक छोटे से कमरे में घुसते ही मेरी दृष्टि जिस व्यक्ति पर पड़ी] उन्हें देख कर मैं चौंक पड़ा। यह भी ठीक उसी तरह के थे जिस तरह ऋषिकेश वाले सन्त या नेपाली बाबा थे। उनमें और इनमें मैंने जो समानता देखी थी वह यह थी कि इनका भी चेहरा बहुत हद तक उनसे मिलता था। बात चीत का ढंग। रंग, रूप, जटा सब कुछ वैसा ही तो था। चटार्इ के स्थान पर अत्यन्त मैली दो पुरानी बोरियाँ तथा लकड़ी के स्थान पर पीतल का कमण्डल था। यहाँ भी एक समय ही भोजन ग्रहण करने की परम्परा थी। यहाँ एक नर्इ बात जो मैंने अनुभव की वह था बाबा का पान तम्बाकू का सेवन।

मुझे देखते ही उनका पहला वाक्य यह था। आओ बच्चा! बहुत घूम आए, बैठो। मैं उनके निकट फर्श पर बैठ गया। चूल्हे से निकले धुएं ने पूरे कमरे को काला कर रखा था। बाबा ने कहा- अभी कुछ दिन बाहर कहीं जाना नहीं। आते रहना। उस दिन तो मैं चला आया। घर आकर मैं सारा दिन तथा देर रात तक ऋषिकेश वाले सन्त जी का वह वाक्य याद करता रहा- मेरे बाद समय-समय पर तीन सन्त तुम्हें मिलेंगे जो कि तुम्हारा मार्ग दर्शन करेंगे। मैं यही सोचता रहा कि कहीं यह दूसरे तो नहीं हैं। उस दिन के बाद मैं अक्सर उनके पास जाता रहा। मै जब भी उनके पास अकेले होता तो वे ध्यान साधना के विषय पर ही बात करते। उन्होंने जो कुछ सिखाया निसन्देह वह पहले सिखाए गए अभ्यासों की अगली कड़ी थे। मैंने उनसे दीक्षा लेने का मन बना लिया था। एक बार की बात है मैं फक्कड़ बाबा के पास गया। मै उनका चित्र लेना चाहता था। मैंने जब आग्रह किया तो वे मेरे आग्रह पर मान गए थे। बाबा ने मेरे सिर पर आशीर्वाद देते हुए अपना प्रथम चित्र खिंचवाया था। रामू दादा द्वारा लिया गया वह चित्र आज भी कम्प्यूटर के अतिरिक्त मेरे मन मसितष्क में अंकित है।

एक दिन की बात है, मैं और फ़ैज़ाबाद वाले अंकल जी नीचे फर्श पर बैठे थे। बाबा लकड़ी के तख्त पर बैठे थे। बाबा अनाप शनाप न जाने क्या क्या बोले जा रहे थे। किसी की समझ में एक शब्द भी नहीं आ रहा था। अचानक मेरी तरफ मुंह करके एक लीवर टानिक का खाली डिब्बा देते हुए बोले- मैं बड़ा परेशान हूँ। यह दवा लेकर आओ। मैं अंकल जी के साथ तमाम दवाखानों में गया। जिसे भी वह डिब्बा दिखाता वह यही कहता- इससे पहले हमने कभी इस दवा का नाम भी नहीं सुना। निराश होकर हम लौट आए। बाबा को बताया कि दवा नहीं मिली। उनसे जब जानना चाहा कि आपको परेशानी क्या है ? आप बताएं तो हम दूसरी दवा ले आएं। उन्होंने जो कारण बताया उसे सुनकर सब हंस दिए लेकिन मैं बहुत गम्भीर हो गया था।

वह मेरी ओर देखकर बड़बड़ाने लगे- लीवर खराब हो गया है। अभी दो महीने भी तो नहीं बीते कि पिछले सप्ताह मुझे शौच के लिए जाना पड़ा। अब मैं यहाँ नहीं रहूंगा। अब मैं तीर्थ करने जाना चाहता हूँ। यहाँ सब कुछ बेकार है। र्इश्वर को मत भूलो। उसे याद रखना। क्या योगी और क्या भोगी, सबको जाना है। क्या गुरु और क्या चेला। सबको जाना ही जाना है। उसके बाद वो मेरे चेहरे पर दृष्टि टिका कर बोले- दीक्षा वीक्षा हो चुकी- जैसा जिसने बताया, करते जाओ, करते जाओ। इसी बीच कुछ पलों के लिए मेरी दृषिट जैसे ही उनकी दृष्टि से मिली। मेरे पूरे बदन में जैसे बिजली का करन्ट लग गया था। शरीर की एक-एक नस में विद्ध्युतीय तरंगों के प्रवाह को मैंने स्पष्ट महसूस किया था। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रख कर मुझे आशीर्वचन दिए। बाद में मुझे लोगों ने बताया कि यह पहला अवसर है जब बाबा ने किसी के सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया हो।

घर आकर मैं सोचने लगा कर्इ-कर्इ सप्ताह शौच के लिए न जाना तो ऋषिकेश वाले सन्त जी के स्वभाव जैसा था। ऋषिकेश वाले सन्त जी के अनुसार यह मुझे दूसरे सन्त मिले थे। यह मुझे दीक्षा कैसे दे सकते थे। मैं अपने लेखकीय कार्य हेतु भ्रमण पर निकल गया। कुछ ही दिनों बाद बलरामपुर से डा0 अनिल गौड़ ने फोन से सूचना देते हुए फक्कड़ बाबा के निधन का समाचार दिया। मैंने मन ही मन उनके चरण स्पर्श किए। आज मुझे उनके तीर्थ जाने की बात समझ आ गर्इ थी। 

Monday 30 January 2012

र्इश्वर कोर्इ स्थूल या स्थापित की हुर्इ वस्तु का नाम नहीं है।

र्इश्वर कोर्इ स्थूल या स्थापित की हुर्इ वस्तु का नाम नहीं है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं - ßहे अर्जुन! र्इश्वर प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान है।Þ तब हम मूर्ख है जो उन्हें बाजार में खोजते हैं। हम अर्थहीन बाह्यक्रियायें करते रहते हैं, इसलिए नहीं कि हम उसमें किसी सच्चार्इ को देखते हैं, अपितु इसलिए कि हम उन्हें सदियों से करते चले आ रहे हैं।

अध्यात्मिकता असितत्व की वह स्वभाविक स्थिति है जिसे प्राप्त करके हम अपने अन्दर देखना प्रारम्भ करते हैं, सामान्य प्राकृतिक अवस्था को सामान्य प्राकृतिक रीति से ही माना जा सकता है। धार्मिक उत्सव गलत या बेकार नहीं होते] लेकिन वे केवल अध्यात्मिकता की ओर जाने वाला एक पग ही होता है। उनसे चिपके रहना ऐसा है, कि जैसा पुल पर घर बनाना। पुल बनाये जाते हैं उन पर से होकर पार जाने के लिए ना कि उन पर बस जाने के लिए। पिकनिक पर जायें तो सुन्दर दृष्यों का आनन्द ले सकते हैं लेकिन कोर्इ उन्हें देखते रहने के लिए वहां बस नहीं जाता है। उसी प्रकार अध्यात्मिकता भी ठहराव का नाम नहीं है। वह विकास की सतत प्रवाहमान प्रक्रिया का नाम है।

हम जब कुछ पढ़ते हैं तो शब्दों, विराम अर्धविराम चिन्हों को असत्य नहीं समझते हैं, उनसे अभिव्यक्त होने वाले भाव को ही हम ग्रहण करते हैं, क्योंकि भाव तक पहुँचने के लिए अक्षरों का सहारा नहीं लिया जा सकता। इससे प्रेम करने और गले लगाने की जरूरत है क्योंकि मुक्ति या मोक्ष इसके द्वारा हो आयेगा] इसके बाहर नहीं। कन्फयूशियस ने कहा कि बहुत लोग सुखों को मनुष्यों से ऊपर कही खोजते हैं, दूसरे मनुष्य इसे नीचे कहीं खोजते हैं, लेकिन सुख मनुष्य जितनी ऊँचार्इ पर ही है, ऊपर या नीचे नहीं। साधारण प्रतीत होने वाले प्रश्न भी कभी कभार बहुत महत्व के होते हैं, जैसे आप कौन है ? कहां से आये हैं ? और आप कहां जा रहे हैं ? तांग राजवंश के चीनी दार्शनिक ने स्वप्न देखा कि वह एक तितली था लेकिन उसके आगे वह यह निश्चित रूप से नहीं जान सका कि वह तितली नहीं था] जो कि चीनी दार्शनिक होने का स्वप्न देख रही थी। क्या हम निश्चय रूप से कहते सकते हैं कि हम कौन हैं ?

अध्यात्मिकता को प्राप्त करने का अर्थ यह नहीं है कि हमारे अस्थायी अस्तित्व के दु:खों और कष्टों से हमें मुकित मिल जायेगी अपितु यह दुखों के उन कारणों को दूर करना है जो हमारे विगत कर्मो के परिणाम स्वरूप अब उपस्थित हैं। यह भ्रमात्मक बात है कि अध्यात्मिकता भौतिक जीवन की विरोधी है] वास्तव में यह भौतिक जीवन को साथ लेकर चलती है। लेकिन दोनों में एक संतुलन होना चाहिए। पक्षी के दो पंखों की तरह यह दोनों भी हैं] जैसे पक्षी एक पंख से नहीं उड़ सकता उसी तरह आत्म साक्षात्कार की ओर हमारी प्रगति के मार्ग में भी अन्दर के विश्व और बाहर के विश्व के बीच का विरोधाभास मिट जाना चाहिए। दोनों ही र्इश्वरत्व की प्राप्ति के लिए एकीकृत साधन स्वरूप हैं

कुछ जगहों पर निर्धारित दिनों के बाद प्रतिज्ञा तोड़ने को और परित्याग किये गये सुखों को नये जोश के साथ पुन: चालू करने को धार्मिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। एक पुरानी कहावत है कि प्रतिज्ञायें तोड़ने के लिए ही की जाती हैं - सच बन जाती हैं। जीवन के घटनाक्रम में र्इश्वर के प्रति भक्ति प्रदर्शित करने वाले ऐसे प्रकरण उसी प्रकार आते है जैसे नाटक में रुचि बनाये रखने के लिए हंसी-मजाक के दृष्य डाल दिये जाते हैं। लोग इस बात से स्वयं को संतुष्ट कर लेते हैं कि चालीस दिनों के सुखोपयोग के परित्याग से उन्होने र्इश्वर को खु कर लिया है। कुछ दिनों के सुखोपयोग का परित्याग करना, उसे तोड़ का पुन: चालू कर देना- एक अलग बात है] लेकिन यह मान लेना सरासर अशिष्टता या घृष्टता है कि उससे र्इश्वर प्रसन्न हो गया है। क्या र्इश्वर का अस्तित्व लोगों के पूजा और सुख त्याग के बिना खतरे में पड़ जायेगा ? र्इश्वर बिना पूजा या स्तुति के मरा नहीं जा रहा है। मानव के रूप में र्इश्वर की कल्पना र्इश्वर की नहीं हमारी बनार्इ हुर्इ है।

Saturday 28 January 2012

सुमिल ! तुमने सकारात्मक सोच के प्रभाव के बारे मे पूछा है।

पशुओं से प्रेम की भाषा का एक अनुभव याद आता है, विगत वर्ष मै गोरखपुर नगर से दस या बारह कि0 मी0 दूर रामगढ़ के वन विभाग के विश्रामालय मे ठहरा हुआ था। वहाँ के चौकीदार के द्वारा मुझे पता चल कि सुबह दिन निकलते ही जंगल के कुछ हिरण विश्रामालय के अति निकट आ जाते हें। चौकीदार उन्हें रात का बचा खुचा भोजन दे दिया करता था। मैंने चौकीदार से कहा सुबह तुम जब उन के पास जाना तो मुझे भी उनके पास ले जाना। उसने बताया कि साहब! हिरण अपरिचितों के पास नहीं आते। मैंने कहा कि प्रयास करूंगा। मेरा विश्वास है कि वो मेरे पास जरूर आएंगे. 
देर् रात तक मैंने उन अपरिचित हिरणो के बारे मे सकारात्मक सोच बनाई। सुबह तक उनके प्रति मन ही मन प्रेम कि भावना उत्पन्न करता रहा। सुबह सूर्योदय के समय मई चौकीदार के साथ उस स्थान तक गया जहां हिरण आते थे।  कुछ ही पलों मे मुझे हिरणों का झुंड आता दिखाई दिया। वे सभी कुछ फासले पर रुक कर हमारी ओर देखने लगे।
मै मन ही मन तरंगों के माध्यम से उन्हें अपने पास बुलाने का निमंत्रण देता रहा। मेरे आश्चर्य कि सीमा न रही जब मैंने एक हिरण को अपनी ओर आते देखा। मैंने एक हाथ में चने लेकर हाथ उसकी ओर बढ़ाया। वह धीरे धीरे पास आया ओर मेरी हथेली पर रखे चने खाने लगा। उसके बाद एक ओर हिरण आया। मैंने बहुत देर तक उन दोनों हिरणों को चने खिलाये तथा उनके सिर पर हाथ फेर कर उन्हे खूब प्यार किया।
कहने या लिखने कि आवश्यकता नहीं है कि सकारात्मक सोच और  प्रेम कि भाषा से उत्पन्न इस संबंध को वयक्त करने के लिए किन शब्दों का प्रयोग करूँ।
  

Sunday 22 January 2012

हाटी हिमाचल गिरिपार के आदिवासी हैं।


हाटी हिमाचल गिरिपार के आदिवासी हैं। जहां आज भी महाभारत कालीन सभ्यता (परम्परा) देखने को मिलती है। जैसे कि कई भाइयों की एक ही पत्नी का होना। जैसे कि महाभारत काल में पांडव बंधुओं की एक ही पत्नी थी। यह अपने को पांडवों के वंशज होना बताते हैं। मैंने तीन वर्ष का समय इनके साथ व्यतीत किया और गहन अध्यन के बाद एक पुस्तक तैयार की जिसमे लगभग सौ रंगीन चित्र हैं।
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