र्इश्वर
कोर्इ स्थूल या स्थापित की हुर्इ वस्तु का नाम नहीं है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं - ßहे अर्जुन! र्इश्वर प्रत्येक प्राणी
के हृदय में विराजमान है।Þ तब हम मूर्ख है जो उन्हें बाजार में खोजते हैं। हम अर्थहीन बाह्यक्रियायें करते रहते हैं, इसलिए नहीं कि हम उसमें किसी
सच्चार्इ को देखते हैं, अपितु इसलिए कि हम उन्हें
सदियों से करते चले आ रहे हैं।
अध्यात्मिकता असितत्व की वह स्वभाविक स्थिति है जिसे प्राप्त करके हम अपने अन्दर देखना
प्रारम्भ करते हैं, सामान्य प्राकृतिक अवस्था को
सामान्य प्राकृतिक रीति से ही माना जा सकता है। धार्मिक उत्सव गलत या बेकार नहीं
होते] लेकिन वे केवल अध्यात्मिकता की ओर जाने वाला एक पग ही होता है। उनसे
चिपके रहना ऐसा है, कि जैसा पुल पर घर बनाना।
पुल बनाये जाते हैं उन पर से होकर पार जाने के लिए ना कि उन पर
बस जाने के लिए। पिकनिक पर जायें तो सुन्दर दृष्यों का आनन्द ले सकते हैं लेकिन
कोर्इ उन्हें देखते रहने के लिए वहां बस नहीं जाता है। उसी प्रकार अध्यात्मिकता भी ठहराव का नाम नहीं है। वह विकास की सतत
प्रवाहमान प्रक्रिया का नाम है।
हम जब
कुछ पढ़ते हैं तो शब्दों, विराम अर्धविराम चिन्हों को
असत्य नहीं समझते हैं, उनसे अभिव्यक्त होने वाले
भाव को ही हम ग्रहण करते हैं, क्योंकि भाव तक पहुँचने के
लिए अक्षरों का सहारा नहीं लिया जा सकता। इससे प्रेम करने और गले लगाने की जरूरत
है क्योंकि मुक्ति या मोक्ष इसके द्वारा हो आयेगा] इसके बाहर नहीं। कन्फयूशियस ने कहा कि बहुत
लोग सुखों को मनुष्यों से ऊपर कही खोजते हैं, दूसरे मनुष्य इसे नीचे कहीं
खोजते हैं,
लेकिन सुख मनुष्य जितनी ऊँचार्इ पर ही है, ऊपर या नीचे नहीं। साधारण प्रतीत होने वाले
प्रश्न भी कभी कभार बहुत महत्व के होते हैं, जैसे आप कौन है ? कहां
से आये हैं ?
और आप कहां जा रहे हैं ? तांग राजवंश के चीनी
दार्शनिक ने स्वप्न देखा कि वह एक तितली था लेकिन उसके आगे वह यह निश्चित रूप से नहीं जान सका कि वह तितली नहीं था] जो
कि चीनी दार्शनिक होने का स्वप्न देख रही थी। क्या हम निश्चय रूप से कहते सकते हैं
कि हम कौन हैं ?
अध्यात्मिकता को प्राप्त करने का अर्थ यह
नहीं है कि हमारे अस्थायी अस्तित्व के दु:खों और कष्टों से
हमें मुकित मिल जायेगी अपितु यह दुखों के उन कारणों को दूर करना है जो हमारे विगत
कर्मो के परिणाम स्वरूप अब उपस्थित हैं। यह भ्रमात्मक बात है कि अध्यात्मिकता भौतिक जीवन की विरोधी है] वास्तव में यह भौतिक जीवन को साथ लेकर चलती
है। लेकिन दोनों में एक संतुलन होना चाहिए। पक्षी के दो पंखों की तरह यह दोनों भी
हैं] जैसे पक्षी एक पंख से नहीं उड़ सकता उसी तरह
आत्म साक्षात्कार की ओर हमारी प्रगति के मार्ग में भी अन्दर के विश्व और बाहर के विश्व के बीच का विरोधाभास मिट जाना चाहिए। दोनों ही र्इश्वरत्व की प्राप्ति के लिए एकीकृत साधन स्वरूप हैं।
कुछ जगहों पर निर्धारित दिनों के बाद प्रतिज्ञा तोड़ने को और परित्याग किये
गये सुखों को नये जोश के साथ पुन: चालू करने को धार्मिक उत्सव के रूप में मनाया
जाता है। एक पुरानी कहावत है कि प्रतिज्ञायें तोड़ने के लिए ही की जाती हैं - सच बन जाती हैं। जीवन के घटनाक्रम में र्इश्वर के प्रति भक्ति प्रदर्शित करने वाले ऐसे प्रकरण उसी प्रकार आते है
जैसे नाटक में रुचि बनाये रखने के लिए हंसी-मजाक के दृष्य डाल दिये जाते हैं। लोग इस बात से
स्वयं को संतुष्ट कर लेते हैं कि चालीस दिनों के सुखोपयोग के परित्याग से उन्होने
र्इश्वर को खुश कर लिया है। कुछ दिनों के सुखोपयोग का परित्याग करना, उसे तोड़ का पुन: चालू कर देना- एक अलग बात है] लेकिन यह मान लेना सरासर
अशिष्टता या घृष्टता है कि उससे र्इश्वर प्रसन्न हो गया है। क्या र्इश्वर का अस्तित्व लोगों के पूजा और सुख त्याग के बिना खतरे में पड़
जायेगा ? र्इश्वर बिना पूजा या स्तुति के मरा नहीं जा रहा है। मानव के रूप में र्इश्वर
की कल्पना र्इश्वर की नहीं हमारी बनार्इ हुर्इ है।