लम्बे समय तक भ्रमण करने के बाद जब मेरा बलरामपुर प्रवास हुआ तो मुझे उनकी याद आर्इ। इतिहास से सम्बनिधत किसी जानकारी हेतु मुझे उनसे मिलना आवश्यक भी था। मैं उनका गाँव तब तक नहीं जानता था। उन्होने अपना जो फोन नम्बर दिया था। उसे मिलाने पर एक ही वाक्य सुनार्इ देता कि उपभोक्ता का नम्बर स्थायी रूप से कट चुका है। मैंने अपनी बेटी शैली से कहा कि मुझे उन आचार्य जी से बहुत जरूरी काम है। फोन मिल नहीं रहा। क्या करूं; शैली ने कहा- अरे पापा! प्राण ध्यान करो। सोच बनाओ और सोच का एस एम एस बना कर सोच के माध्यम से भेज दो। मुझे लगा शैली ठीक कह रही है। करने में क्या हर्ज है। भले ही शैली ने उस समय वह सब व्यंग्य के रूप में कहा हो लेकिन मंैने कुछ देर प्राण ध्यान किया और उनके प्रति सोच बनाता रहा। तीन दिन व्यतीत हो गए। तीसरे दिन शाम के समय जब किसी ने दरवाजा खटखटाया तो खोलते ही देखा सामने आचार्य जी खड़े थे। मैने उनके पाँव छुए। वे दरवाजे से ही बड़बड़ाते हुए कमरे में दाखिल हुए और कुर्सी पर बैठ गए। वो जो कुछ बड़बड़ा रहे थे, वह इस प्रकार था। मैं बहुत डरते-डरते आया हूँ। आप बलरामपुर में हैं या नहीं? इसका मुझे कुछ पता नहीं था। परसों से मेरे दिमाग में खलबलाहट मची हुर्इ है, कि जाकर बख्शी जी से मिल आऊं। आज तो लग रहा था कि जैसे कोर्इ मुझे भीतर से धकेल कर आपके पास आने को विवश कर रहा है। मैने और शैली ने एक दूसरे की ओर देखा और मुस्करा दिए। अब आचार्य जी को कैसे समझाएं कि उन्हें किस प्रयोग द्वारा बुलवाया गया है। सकारात्मकसोच का आज एक और पाठ पढ़ लिया था।
अन्तस की यात्रा
समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।
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Tuesday, 10 January 2012
सकारात्मक सोच का आज एक और पाठ
लम्बे समय तक भ्रमण करने के बाद जब मेरा बलरामपुर प्रवास हुआ तो मुझे उनकी याद आर्इ। इतिहास से सम्बनिधत किसी जानकारी हेतु मुझे उनसे मिलना आवश्यक भी था। मैं उनका गाँव तब तक नहीं जानता था। उन्होने अपना जो फोन नम्बर दिया था। उसे मिलाने पर एक ही वाक्य सुनार्इ देता कि उपभोक्ता का नम्बर स्थायी रूप से कट चुका है। मैंने अपनी बेटी शैली से कहा कि मुझे उन आचार्य जी से बहुत जरूरी काम है। फोन मिल नहीं रहा। क्या करूं; शैली ने कहा- अरे पापा! प्राण ध्यान करो। सोच बनाओ और सोच का एस एम एस बना कर सोच के माध्यम से भेज दो। मुझे लगा शैली ठीक कह रही है। करने में क्या हर्ज है। भले ही शैली ने उस समय वह सब व्यंग्य के रूप में कहा हो लेकिन मंैने कुछ देर प्राण ध्यान किया और उनके प्रति सोच बनाता रहा। तीन दिन व्यतीत हो गए। तीसरे दिन शाम के समय जब किसी ने दरवाजा खटखटाया तो खोलते ही देखा सामने आचार्य जी खड़े थे। मैने उनके पाँव छुए। वे दरवाजे से ही बड़बड़ाते हुए कमरे में दाखिल हुए और कुर्सी पर बैठ गए। वो जो कुछ बड़बड़ा रहे थे, वह इस प्रकार था। मैं बहुत डरते-डरते आया हूँ। आप बलरामपुर में हैं या नहीं? इसका मुझे कुछ पता नहीं था। परसों से मेरे दिमाग में खलबलाहट मची हुर्इ है, कि जाकर बख्शी जी से मिल आऊं। आज तो लग रहा था कि जैसे कोर्इ मुझे भीतर से धकेल कर आपके पास आने को विवश कर रहा है। मैने और शैली ने एक दूसरे की ओर देखा और मुस्करा दिए। अब आचार्य जी को कैसे समझाएं कि उन्हें किस प्रयोग द्वारा बुलवाया गया है। सकारात्मकसोच का आज एक और पाठ पढ़ लिया था।
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