अन्तस की यात्रा

Dedication : This blog is dedicated tothose great spirits(Sants), who following the tradition of Guru Shishya, deemed me worthy of attention and introduced me to PRAN DHYAN, the method of simplest and highest form of meditation. Where direct and indirect blessings are always with me, by the path shown by the them. With the effect that I guide and sport those who arementally disturbed in some forms and are in search of peace. In life through positive thinking and meditation I have come back to my self. If you like tocome, you’re. Note: I only show you the way, you only have to walk. You will only receive sensations. Come to thy self increase your self power. click here for English version


समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।
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तुमने पूछा है


क्या अपने गुरु का चित्र अपने गृह मन्दिर में रखना चाहिए ?
नीलम सिंह देहारादून।   

नीलम ! सबसे पहले तो तुम्हें यह स्वीकार करना होगा कि गुरु, र्इश्वर नहीं होता।
मुझे उन लोगों से बहुत चिढ़ होती है, जो अपने मार्ग दर्शक (गुरु) को र्इश्वर तुल्य मान कर उनका भी चित्र अपने गृह मन्दिर में रख कर उन्हें भी धूप अगरबत्ती का धुआं दिखाते रहते है। मेरा मानना है कि प्रत्येक मार्ग दर्शक (गुरु) नदी या सड़क पर बने उस पुल की भांति होता है, जिसका काम होता है- इस पार से उस पार तक पहुंचाना। पुल ने आपको इस पार से उस पार कर दिया तो उसके बाद पुल की भूमिका समाप्त। न तो पुल को आप अपने घर ले जा सकते है, और न ही पुल पर घर बनाया जाता है। ठीक इसी प्रकार गुरु भी आपको किसी अज्ञानता से ज्ञान का मार्ग दिखाता है, उसके बाद उसकी भूमिका समाप्त।

मेरा यह भी मानना है कि हम लोग जो भी कार्य करते हैं, उसे हम नहीं करते बल्कि किसी और के कार्य को पूरा करने में कुछ सहायता अवश्य प्रदान करते हैं। उसे यूं भी समझा जा सकता है। जैसे किसी राष्ट्र का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री अथवा कोर्इ पदासीन उच्चाधिकारी अथवा किसी भी पद पर बैठा कोर्इ कर्मचारी अवकाश पर हो, या सेवामुक्त हो चुका हो अथवा मर गया हो। ठीक उसी कुर्सी पर कोर्इ दूसरा आकर बैठ जाता है पीछे वाले के छूटे कार्यो को आगे बढ़ाता ले जाता है। राष्ट्र चलते रहते हैं, कार्यालय चलते रहते हैं, काम होते रहते है। कुर्सी वहीं रह जाती है, उस पर बैठने वाले चेहरे बदलते रहते हैं। काम कभी रुकते नहीं। रिक्त स्थान पर उसी योग्यता वाले को बैठा दिया जाता है, जैसी योग्यता वाला पहले उसी कुर्सी पर बैठा था। आज भी तमाम न्यायालयों या बड़े सरकारी दफ्तरों में वह कुर्सी देखी जा सकती है, जिस पर कभी अंग्रेज बैठकर न्यायपालिका चलाया करते थे। कुर्सी वही है, जबकि तब से आज तक तमाम जज़ उस पर बैठे और चले गए। एक का अधूरा काम दूसरे ने पूरा किया। उसका छूटा किसी अन्य ने। यह सिलसिला निरन्तर जारी है, और रहेगा।
प्रकृति का भी यही सिद्धान्त है। समाज के किसी भी वर्ग हेतु किसी के भी द्वारा यदि कोर्इ कार्य किसी आत्मा (प्राणी) द्वारा किया जा रहा हो और किसी भी कारण वश वह काम अधूरा रह जाता है, अथवा वह प्राणि मृत्यु प्राप्त कर लेता है, तो प्रकृति उस काम को पूरा करवाने के लिए उसी योग्यता के अनुरूप किसी अन्य आत्मा (प्राणि) की तलाश करती है। मिल जाने पर उससे उस अधूरे कार्य को पूरा करवा लेती है। इसमें ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस अधूरे कार्य के पूरा हो जाने पर वास्तविक प्रसन्नता किसको होगी ? जिसने काम पूरा किया उसको या जिसका काम पूरा हुआ उसको ? निश्चित रूप से जिसका काम जिसका स्वप्न, जिसकी अभिलाषा पूरी हुर्इ होगी। वास्तविक प्रसन्नता उसी को होगी। मेरा निजि अनुभव बताता है। मेरी एक पुस्तक अवध के तालुकेदार प्रकाशित हुर्इ। विगत एक सौ पचीस वर्षो से इस विषय पर एक भी पुस्तक नहीं थी। महाराजा बलरामपुर श्री धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह की प्रेरणा द्वारा मैने तीन वर्षो के शोध के परिणाम स्वरूप उसका सृजन किया था। पुस्तक छप गर्इ, मेरी भूमिका समाप्त। उसी दौरान लखनऊ के एक काफी बड़े सर्राफ सेठ ओम प्रकाश खुनखुन जी ने मुझे कर्इ बार कहा कि लखनऊ की बारादरी में इसका भव्य विमोचन समारोह कराने का विचार है। उत्तर प्रदेश के राज्यपाल (तब विष्णुकान्त शास्त्री जी थे) से पुस्तक का विमोचन कराया जाएगा। मै धीरे से मुस्कराता और हमेशा उनसे यही कहता- यह मेरी सोच या मेरी प्रसन्नता में शामिल नहीं है। आपको यदि प्रसन्नता मिलती है तो इसे अवश्य करें, लेकिन मेरी उपस्थिति अनिवार्य न समझें।
पिछले वर्ष मेरी एक पुस्तक हिमाचल का हाटी समुदाय प्रकाशित हुर्इ। वहाँ के लोगों ने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री से उसका विमोचन करने की अनुमति प्राप्त कर ली। मुझे भी सूचित किया गया। यहाँ भी मैं अपनी राय पर कायम था। पुस्तक लेखन का वह काम भी किसी और आत्मा का था जिसे मेरे माध्यम से पूरा कराया गया। मुझे न कोर्इ खुशी है न गम। कुछ खुशी है तो केवल इस बात की, कि मैने किसी के कार्य को पूरा कर दिया। निश्चित दिन (शायद 4 मर्इ 2011) को पुस्तक का विमोचन हुआ, लेकिन मेरी अनुपस्थिति में। शायद तुम्हें तुम्हारे सवाल का जवाब मिल गया होगा. आज बस इतना ही.


नरिंदर ! तुमने पूछा है कि उपासना का आसन कैसा हो ?


नरिंदर मेहता, पानीपत
र्इश्वर के ध्यान के लिए आसनों के विषय में भी लोगों की अनेक प्रकार की धारणाएँ बनी हुर्इ हैंपद्मासन, सिद्धासन या वज्रासन लगाएंगे तभी ध्यान होगा अथवा इस प्रकार बैठेंगे तभी ध्यान होगा] किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। र्इश्वर की उपासना के लिए  शरीर का स्थिर होना तो आवश्यक है। शरीर की स्थिरता के लिए हम किसी भी आसन को लगा सकते हैं जो हमारे अनुकूल हो] वह चाहे सिद्धासन हो] सुखासन हो या कोर्इ भी। बलिक देखने में आया है प्रारंभिक साधकों के लिए पद्मासन, सिद्धासन आदि कठिन होते हैं। उसमें लम्बे काल तक साधक बैठ नहीं सकते। इसलिए जो कोर्इ सरल आसन] जिससे लम्बे काल तक सीधा होकर बैठ सके] बिना कष्ट के उसको लगा सके] उस आसन को लगाना चाहिए। अच्छे स्तर का ध्यान] उँचे स्तर का ध्यान धरती के ऊपर आसन लगा के सीधे होकर बैठने से होता है लेकिन यदि किसी व्यकित के कमर में दर्द है] पाँव में दर्द है] आसन लगा नहीं सकता है] चौकड़ी (पालथी)  लगा नहीं सकते है] इसलिए इनको रोकना पड़ता है। अत: भौतिक वस्तु से जब विषयों का सेवन हो रहा होता है तो ये बाधा उत्पन्न तो वह व्यक्ति बिना नीचे धरती पर बैठकर भी] कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान कर सकता है] आराम कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान कर सकता है। बल्कि यदि इतना दर्द हो या प्रतिकूलता हो कि बैठ भी न सके तो पलंग पर] बिस्तर के ऊपर लेटकर भी ध्यान कर सकता है। ध्यान करने की मुख्य क्रिया चित्त की एकाग्रता है न कि आसन लगाना। हाँ] धरती पर सीधे बैठ करके ध्यान करने में आलस्य प्रमाद कम आता है] ध्यान सरलता से हो जाता है। आराम पूर्वक कुर्सी पर बैठने में] बिस्तर पर बैठने में यह बाधा उत्पन्न हो सकती है कि व्यक्ति को नींद आ सकती है] आलस्य आ सकता है] इसलिए जो सामर्थ्यवान है] स्वस्थ है] वह धरती पर आसन लगाकर] सीधा होके बैठे और ध्यान लगाये। जो पूर्ण स्वस्थ नहीं है] कोर्इ बाधा है तो आराम पूर्वक कुर्सी पर भी बैठ सकता है] बिस्तर पर भी बैठकर ध्यान कर सकता है। मुख्य कार्य होता है मन को बाह्य विषयों से रोक करके र्इश्वर की ओर लगाना. (25/Jan/12)

शैली तुमने पूछा है कि निराकार र्इश्वर की उपासना कैसे की जाए निराकार र्इश्वर का ध्यान कैसे
र्इश्वर का ध्यान करने वाले साधकों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि निराकार र्इश्वर की उपासना कैसे की जाए] मन को टिकाने के लिए कोर्इ न कोर्इ तो आधार होना ही चाहिए] चाहे वह आधार कोर्इ मूर्ति हो कोर्इ प्रकाश हो] कोर्इ दीपक हो] कोर्इ अगरबत्ती हो, कोर्इ लौ हो] कोर्इ बिन्दु हो] कोर्इ चिह्न हो। कोर्इ न कोर्इ वस्तु तो होनी चाहिए। बिना किसी आधार के मन को कैसे टिका पायेंगे] इस विषय में ध्यान देने की बात है कि मन को टिकाने के लिए आश्रय की आवश्यकता तो है, हम भी कहते हैं कि आश्रय तो लेना ही चाहिए किन्तु वह आश्रय र्इश्वर का ही होना चाहिए। हम ध्यान तो करना चाहे र्इश्वर का किन्तु आश्रय लें प्रकृति का तो ये तो गड़बड़ हो जायेगी इसलिए आश्रय] वह लेना है जो र्इश्वर का ही गुण-कर्म-स्वभाव हो।
शब्द] स्पर्ष रूप] रस] गंध] भार] लंबार्इ] चौड़ार्इ गुण प्रकृति के हैं और प्रकृति से बने पदार्थों में भी आते हैं] किन्तु ये गुण र्इश्वर में नहीं है। इनका आश्रय हम लोग लेंगे, तो यह प्रकृति का आश्रय हो गया। र्इश्वर का आश्रय कैसे कहलायेगा] यहाँ प्रकृति के आश्रय को लेकर कहा जा रहा है कि र्इश्वर का आश्रय ले रहे हैं। यह मिथ्या धारणा र्इश्वर का गुण बल है, र्इश्वर का गुण दया है] र्इश्वर का गुण न्याय है इत्यादि। तो हमें र्इश्वर की उपासना करने के लिए और अपने मन को टिकाने के लिए र्इश्वर के गुणों का ही आश्रय लेना चाहिए। उन गुणों को लेकर के ही मन को टिका सकते हैं] और ध्यान कर सकते हैं।
निराकार का आश्रय
शैली! इसे भी जानो।
यदि हम किसी रूप का आश्रय ले करके र्इश्वर का ध्यान कर रहे हैं तो वह ध्यान होगा ही नहीं, वहाँ तो वृत्ति बन रही है, क्योंकि रूप नेत्र का विषय है और हम नेत्र से रूप को देखकर वृत्ति बनाये हुए हैं, वृत्ति निरोध कैसे हो पायेगा] र्इश्वर का ध्यान करने के लिए वृत्ति-निरोध कहा गया है। अर्थात मन के माध्यम से, इनिद्रयों के माध्यम से, जो प्राकृतिक विषय हैं] 5 भूत हैं – शब्द] स्पर्श] रूप] रस] गंध उनका हम ग्रहण न करें। यदि ध्यान काल में रूप की अनुभूति कर रहे हैं, तो वृत्ति-निरोध होगा ही नहीं, वहाँ तो वृत्ति चल रही है। उस वृत्ति को रोक करके ही र्इश्वर का ध्यान हो सकता है, इसलिए रूप के आश्रय का निषेध है। इसी प्रकार यदि हम शब्द का आश्रय लेकर के र्इश्वर का ध्यान करते हैं, तो उसका भी निषेध है। क्योंकि वह भी इनिद्रय का विषय है। यह आवश्यक है कि हम उपासना काल में वृत्तियों का निरोध करें। हम ध्यान करने जा रहे हैं हो जाएगी। र्इश्वर का ध्यान र्इश्वर का ही आश्रय लेना है।
र्इश्वर का] किन्तु प्रकृति का आश्रय ले कर प्रकृति का ध्यान र्इश्वर का आश्रय लेना अर्थात र्इश्वर के गुणों का आश्रय करने लग जायें, यह उचित नहीं है अत: उपासना काल में लेना। र्इश्वर का गुण आनन्द है] र्इश्वर का गुण ज्ञान है] शब्द] स्पर्श] रूप] रस] गंध गुणवाले प्राकृतिक पदार्थों का आश्रय नहीं लेना चाहिए।

सकारात्मक सोच का परिणाम

सुमन,
फोन पर तुमने बड़ा अच्छा सवाल पूछा था।
तुमने पूछा था कि क्या किसी दूसरे के लिए सोची गयी बात भी पूरी होती है ? हाँ सुमन, निश्चित पूरी होती है, बशर्ते कि उसमे कोई स्वार्थ निहित न हो। मै तुम्हें अपनी आप बीती घटना सुनाता हूँ। बात लखनऊ की है। मै निमदीपुर के राजा ध्यान पाल सिंह के पास उनकी लखनऊ वाली कोठी मे बैठा हुआ था. उनकी धर्म पत्नी भी साथ थीं। आम की फसल के दिन थे। लखनऊ मे ही मेरे एक अति घनिष्ठ श्री दत्ता साहब रहते हें। एक बार मैंने दत्ता साहब कि पत्नी कामिनी जी से कहा था कि कभी आपको डाल के पके आम खिलाऊंगा। उन दिनों आम कि फसल पक रही थी। मैंने राजा साहब से कहा कि मेरी इच्छा कहीं आम देने कि है। बाज़ार मे कृत्रिम रूप से पके आम ही मिल रहे हैं, यदि डाल के पके आम मिले तो बताइएगा। उन्होने बताया कि अभी एक सप्ताह के बाद ही ऐसे आम मिल सकेंगे।

उसके चौथे या पांचवे दिन देहरादून से मेरे एक मित्र अमित सिंह सपरिवार कार द्वारा लखनऊ आए। जिस समय मुझे उनके लखनऊ पहुँचने का समाचार मिला उस समय मै कामिनी दत्ता जी के यहाँ ही बैठा हुआ था। मैंने उन्हे वही बुलवा लिया। कार से उतरते ही उन्होने अपनी कार के ड्राईवर से एक बोरा उतरवा कर घर के भीतर भिजवा दिया और मेरी तरफ घूम कर बोले- रास्ते मे अपने गाँव होते हुये आया हूँ। वहीं से आपके लिए अपनी बगिया से डाल के पके कुछ आम लाया हूँ। जब वो यह लाइन बोल रहे थे, उस समय मै मन ही मन मुस्कुराते हुए उस ईश्वर को धन्यवाद दे रहा था, जिसने मेरी सोच कि तरंगों को किस प्रकार साकार किया।
एक रियासत के राजा से आम की बात की थी और जहां देने की सोची थी, आम ठीक वहीं पहुँच गए (वह भी एक रियासत से) जहां मै उन्हें पहुंचाना चाहता था। अमित सिंह मुरादाबाद के निकट गौरहा रियासत से हैं।
सुमन, शायद तुम्हें तुम्हारा उत्तर मिल गया होगा। आज बस इतना ही।

र्इश्वर के गुणों से र्इश्वर का ध्यान
र्इश्वर के गुणों से र्इश्वर का ध्यान प्रश्न आता है कि जब र्इश्वर में रूप आदि गुण नहीं हैं तो उसका ध्यान कैसे किया जाए,  इसका सीधा उत्तर यह है कि - हाँ, निराकार का भी ध्यान होता है। हम सभी निराकार वस्तुओं का भी ध्यान करते हैं। उदाहरण के रूप में - क्या वायु किसी को दिखार्इ देती है] वायु का कोर्इ रूप नहीं, उसका कोर्इ लाल, नीला, पीला रंग नहीं है। वायु निराकार है लेकिन हम वायु का ध्यान करते हैं। वायु की अनुभूति करते हैं। प्रश्न आता है कि किसके माध्यम से वायु की अनुभूति करते हैं, उत्तर है कि वायु के गुणों के माध्यम से अनुभूति करते हैं जैसे कि वायु ठण्डी चल रही है तो हम अनुभूति करेंगे कि वायु ठण्डी है। वायु गरम है तो गर्मी के माध्यम से हम वायु की अनुभूति कर लेते हैं। ठीक ऐसे ही र्इश्वर में रूप आदि गुण नहीं हैं परन्तु उसमें अनन्त गुण हैं यथा बल गुण है, दया गुण है, न्याय गुणग्रंथों में र्इश्वर के विषय में आए हुए प्रकाश शब्द का अर्थ है इत्यादि। इन गुणों के माध्यम से हम र्इश्वर का ध्यान कर भौतिक प्रकाश नहीं लेना चाहिए। प्रकाश का अर्थ ज्ञान सकते हैं, करना चाहिए। जैसे कि हे र्इश्वर! आप न्यायकारी हैं, दयालु हैं, सृष्टि के रचयिता हैं, सृषिट के रक्षक हैं, पालक हैं, पोषक हैं। हे र्इश्वर ! आप महान ज्ञानी हैं, महान दयालु हैं,कर्म फल दाता हैं इत्यादि।

ऋचा मेहता यमुना नगर हरियाणा।
ऋचा! तुमने पूछा है की उपासना का स्थान कैसा होना चाहिए।
प्राय: देखने] सुनने में आता है और लोगों की ऐसी मान्यताएँ भी बनी हुइर्ं हैं कि र्इश्वर की पूजा, भकित, ध्यान, उपासना मंदिर में होती है, किसी पहाड़ विशेष में ही होती है, नदी के किनारे होती है, जंगल में होती है। इन्हीं जगहों पर उपासना हो सकती है, सामान्य स्थानों में नही हो सकती, यह मान्यता ठीक नहीं है।
र्इश्वर की उपासना के लिए स्थान का इतना महŸव नहीं है, जितना कि मन की एकाग्रता, र्इश्वर के प्रति समर्पण, प्रेम, श्रद्धा, विश्वास, निष्ठा, रूचि आदि का है। हाँ, इतनी बात तो अवश्य है, स्थान शान्त होगा, एकान्त होगा, रमणीय होगा, स्वच्छ होगा, कोलाहल से रहित होगा तो वहाँ पर अपेक्षाकृत बाधा कम होने के कारण ध्यान अच्छा लगेगा।
लेकिन यदि मन के ऊपर नियन्त्रण हो, र्इश्वर के प्रति रुचि हो, प्रेम हो और प्राणायाम के माध्यम से विधिवत मन को रोक करके मन्त्रों के माध्यम से उसका ध्यान किया जाए तो ध्यान कहीं पर भी लग सकता है। घर से बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। घर में ध्यान लग सकता है, किसी कमरे में लग सकता है। किसी बिस्तर पर लग सकता है, कुर्सी पर भी लग सकता है।

इसी प्रकार दिशा की बात भी आती है कि कौन सी दिशा में बैठ करके र्इश्वर का ध्यान करें। दिशा की भी कोर्इ विशेष अपेक्षा नहीं है। पूर्व, पशिचम, उत्तर, दक्षिण किसी भी दिशा में र्इश्वर का ध्यान कर सकते हैं। जिधर से शुद्ध वायु आती हो, सूर्य उदय होता हुआ, अस्त होता हुआ दिखार्इ देता हो, जिधर पानी हो, समुद्र हो, नदी हो, तालाब हो, झरना हो तो ऐसी परिस्थितियों का मन की प्रसन्नता, एकाग्रता पर प्रभाव पड़ता है। लेकिन यह सब बातें भी गौण है। यदि र्इश्वर में ध्यान करने की रुचि है, प्रेम है तो इसका कोर्इ महŸव नहीं है क्योंकि ध्यान आँख बंद करके होता है और आँख बन्द करने के उपरान्त हम कहाँ बैठे हैं, किस दिशा में बैठे हैं इसकी विस्मृति हो जाती है बल्कि इनको भूलाना पड़ता है। इसलिए दिशा स्थान आदि का भी इतना महŸव नहीं है। आज बस इतना ही. (19/01/12)

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