मै चाहता था कि किसी सामाजिक संस्था से जुड़कर अपने जीवन का शेष समय लोगों कि सेवा में अर्पित करूं. मुझे सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान का कुछ ज्ञान व् अनुभूतियाँ प्राप्त थीं. मै चाहता था कि मै किसी ऐसी संस्था से जुड़ूँ जहाँ या तो मै अपने पूर्व अर्जित ज्ञान व् अनुभूतियाँ में वृद्धि कर सकूं अथवा जितना मै जानता हूँ, उसे औरों में बाँट सकूं.
अपने इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु मै भारत के विभिन्न छोटे व् बड़े धार्मिक व् सामाजिक संस्थानों तथा संतों के आश्रमों में गया तथा वहां कई कई दिन रह कर वहां के बारे में जाना, समझा. उनका साहित्य पढ़ अधिकतर मुझे ऐसे लगे जैसे धार्मिक दुकानों के मालिक। हर कोई अपना साहित्य या अन्य उत्पाद बेचने की फ़िक्र में व्यस्त.
यहाँ मै योग की बात को अलग रखना चाहूँगा। कयोंकि मेरा विषय योग नहीं है. मै ध्यान साधना की सरलतम एवं उच्चतम अन्य विधियों की तलाश में था. मैंने सोचा! कि यदि मै इन धार्मिक दुकानों में फंस गया तो औरों कि तरह मै भी किसी आश्रम या साधु का चेला मात्र बन कर रह जाऊंगा जो न तो मुझे ईश्वरीय मार्ग बताएगा और न ही मुझे मेरे अंतस की यात्रा ही करा सकेगा. हाँ! अंतस की यात्रा हेतु विपश्ना भी एक बेहतर मार्ग है.
मैंने फैसला किया कि मै अपने गुरु द्वारा सिखाई गयी ध्यान साधना की उसी विधि का प्रयोग करुँगा जो उन्होंने सिखाई थी। जिसका नाम उन्होंने प्राण ध्यान बताया था.
ध्यान की इस विधि से मैंने अंतस की यात्रा का कितना और कैसे आनंद लिया कभी इस पर भी बात होगी. आज मै इतना ही कहना चाहूँगा कि यदि कोई भी इस विधि के द्वारा अंतस की यात्रा करना चाहेगा तो उसे मै अवश्य मार्ग दिखाने का प्रयास करुँगा, बशर्ते कि उस प्राणि में प्रेम, दया और सकारात्मक सोच की भावना हो.
याद रखिये, प्रेम, दया और भावना की कोई भाषा नहीं होती.
इसे केवल समझा और समझाया जा सकता है.
अर्थात इसकी अनुभूति प्राप्त की जा सकती है।
खालिद साहेब,
आज आपको सोचने के लिए एक सवाल देता हूँ. कल मैंने Discovery चैंनल पर एक दृश्य देखा था.
दृश्य इस प्रकार था- एक नदी के किनारे पर कुछ हिरन पानी पी रहे थे. अचानक एक मगरमच्छ ने हिरन के एक बच्चे को अपने ज़बड़े में जकड़ लिया.बच्चे का सिर मगरमच्छ के मुंह में था. तभी एक गैंडा आया, उसने मगरमच्छ को एक जोरदार ठोकर दी, बच्चा छूट गया परन्तु घायल था. मगरमच्छ भाग गया. गैंडे ने हिरन के बच्चे का घायल सिर अपने मुंह में डाला और फिर छोड़ दिया. ऐसा उसने तीन बार किया. ऐसा लग रहा था कि जैसे गैंडा उस बच्चे को कृत्रिम सांस दे कर उसे जीवनदान दे रहा हो.
प्रेम और दया का इससे बेहतर उदहारण और क्या हो सकता है.
अब आप बताईये,
वो तीनो अलग अलग प्रजातियों के थे.
सबकी अपनी अलग भाषा होगी.
यहाँ किस भाषा का प्रयोग किया गया था.
बात उन दिनों की है जब अंकल (गुरु जी) यहाँ (बलरामपुर) मे थे। सकारात्मक सोच पर वे अक्सर कुछ न कुछ समझाते रहते थे। वे जब भी बलरामपुर आते थे हमारे बगल वाले कमरे मे ही ठहरते थे। वो जितने दिन यहाँ रहते उतने दिन उनके खाने पीने की व्यवस्था का दायित्व हम संभालते हें। उनका भोजन मै खुद या मेरी मम्मी ही परोसती हैं।
ReplyDeleteहम लोग ऊपर की मंजिल मे रहते हैं। नीचे अशोक का छोटा सा पौधा लगा था। अंकल अक्सर मुझसे तथा मेरी मम्मी से कहा करते थे कि ये पौधा जब बड़ा होगा तो कोई भी इसके द्वारा ऊपर आ सकता है। सरकारी पौधा है, इसे कटवाया भी नहीं जा सकता। तुम लोग ऐसा किया करो कि मेरे न रहने पर भी इस पौधे के प्रति नकारात्मक सोच बनाया करो। ये खुद ही नष्ट हो जाएगा। हम जब भी पौधे के निकट जाते, अंकल की बात याद आती कि - ये पौधा जब बड़ा होगा तो कोई भी इसके द्वारा ऊपर आ सकता है।
धीरे - धीरे तीन साल बीत गए। पौधा वृक्ष बन चुका था। मै ऊपर जब खड़ी होती तो वो मुझ से भी कुछ ऊपर दिखाई देता। अब वास्तव मे हमे भी चिन्ता होने लगी। एक दिन अंकल रात को बलरामपुर पहुंचे। सुबह होते ही उन्होने हमें पुकारा और दिखाया। न आँधी, न बरसात। रात को ये वृक्ष टेढ़ा कैसे हो गया। सबने देखा, वो वृक्ष जड़ से कुछ ऊपर से एकदम झुका पड़ा था। अंकल ने उसे दिखाते हुए कहा कि – देखा! नकारात्मक सोच का परिणाम। इसी प्रकार सकारात्मक सोच का भी सकारात्मक परिणाम मिलता है।
उसके बाद नीचे जाकर उन्होने अपने मोबाइल से उस झुके वृक्ष का फोटो लिया और मुझे तथा मेरी मम्मी को दिखाया। तब से मैं सकारात्मक सोच पर विश्वास करती हूँ और इसे बनाए रखती हूँ।
प्रिंसी (पूर्णिमा श्रीवास्तव)
पवन जी
ReplyDeleteआदाब !
आपका ब्लॉग देख कर मुझे बेहद ख़ुशी हुई. इस बहाने वो लोग भी आपके विचारों और आपकी ध्यान विधि को जान सकेंगे और उस पैर मेहनत कर के अपने की विसंगति और असंतोष से निजात पा सकेंगे.
अब आइये आपके सवाल पैर तो ये तो आपके ब्लॉग से ही ज़ाहिर है की ये सब अंतस की बातें हैं और ये वो रूहानी या यूँ कहें की रूह से रूह ही तरंगों की भाषा है जिस पैर आज science आज शोध कर रही है. आप का प्राण ध्यान उसी भाषा को समझने और उस सोयी हुई शक्ति को जाग्रत करने की विधि है जिसके द्वारा इन्सान की सोयी हुई इंसानियत जाग जाती है और इन्सान वाकई में एक इन्सान बन सकता है.मुझे आपकी विधि इसलिए और आकर्षित करती है क्योंकि ये इंसानियत को जगाने और समाज में सहिष्णुता और हमदर्दी को बढ़ाने वाली विधि है और ये किसी से छिपा नहीं है की आज इन्सान और इंसानियत को किस चीज़ की ज्यादा ज़रूरत है , सुकून , सब्र और इंसानियत की या दौलत , शोहरत और नंगेपन की.
मैं आपको बधाई देता हूँ की उस मालिक ने आपको इस पावन कार्य के लिए चुना है और ये भी ध्यान रखिये की इसमें सिर्फ चुने हुए लोग ही आपके पास आयेंगे. हर शख्स का ये मुकाम नहीं न ही होना चाहिए.
शुक्रिया
खालिद बिन उमर
नॉएडा