अन्तस की यात्रा

Dedication : This blog is dedicated tothose great spirits(Sants), who following the tradition of Guru Shishya, deemed me worthy of attention and introduced me to PRAN DHYAN, the method of simplest and highest form of meditation. Where direct and indirect blessings are always with me, by the path shown by the them. With the effect that I guide and sport those who arementally disturbed in some forms and are in search of peace. In life through positive thinking and meditation I have come back to my self. If you like tocome, you’re. Note: I only show you the way, you only have to walk. You will only receive sensations. Come to thy self increase your self power. click here for English version


समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।
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Tuesday 31 January 2012

बाबा ने कहा- यहाँ सब कुछ बेकार है, अब मुझे तीर्थ जाना है।

एक दिन फैजाबाद वाले अंकल जी यानि कि उमा शंकर श्रीवास्तव जी के साथ मैं डा0 अनिल गौड़ के पास बैठा था। अनिल ने उसी समय फक्कड़ बाबा के दर्शनार्थ जाने को कहा। मैं उसी समय फक्कड़ बाबा के पास पहुंचा। शहर से बाहर गाँव के एक छोटे से कमरे में घुसते ही मेरी दृष्टि जिस व्यक्ति पर पड़ी] उन्हें देख कर मैं चौंक पड़ा। यह भी ठीक उसी तरह के थे जिस तरह ऋषिकेश वाले सन्त या नेपाली बाबा थे। उनमें और इनमें मैंने जो समानता देखी थी वह यह थी कि इनका भी चेहरा बहुत हद तक उनसे मिलता था। बात चीत का ढंग। रंग, रूप, जटा सब कुछ वैसा ही तो था। चटार्इ के स्थान पर अत्यन्त मैली दो पुरानी बोरियाँ तथा लकड़ी के स्थान पर पीतल का कमण्डल था। यहाँ भी एक समय ही भोजन ग्रहण करने की परम्परा थी। यहाँ एक नर्इ बात जो मैंने अनुभव की वह था बाबा का पान तम्बाकू का सेवन।

मुझे देखते ही उनका पहला वाक्य यह था। आओ बच्चा! बहुत घूम आए, बैठो। मैं उनके निकट फर्श पर बैठ गया। चूल्हे से निकले धुएं ने पूरे कमरे को काला कर रखा था। बाबा ने कहा- अभी कुछ दिन बाहर कहीं जाना नहीं। आते रहना। उस दिन तो मैं चला आया। घर आकर मैं सारा दिन तथा देर रात तक ऋषिकेश वाले सन्त जी का वह वाक्य याद करता रहा- मेरे बाद समय-समय पर तीन सन्त तुम्हें मिलेंगे जो कि तुम्हारा मार्ग दर्शन करेंगे। मैं यही सोचता रहा कि कहीं यह दूसरे तो नहीं हैं। उस दिन के बाद मैं अक्सर उनके पास जाता रहा। मै जब भी उनके पास अकेले होता तो वे ध्यान साधना के विषय पर ही बात करते। उन्होंने जो कुछ सिखाया निसन्देह वह पहले सिखाए गए अभ्यासों की अगली कड़ी थे। मैंने उनसे दीक्षा लेने का मन बना लिया था। एक बार की बात है मैं फक्कड़ बाबा के पास गया। मै उनका चित्र लेना चाहता था। मैंने जब आग्रह किया तो वे मेरे आग्रह पर मान गए थे। बाबा ने मेरे सिर पर आशीर्वाद देते हुए अपना प्रथम चित्र खिंचवाया था। रामू दादा द्वारा लिया गया वह चित्र आज भी कम्प्यूटर के अतिरिक्त मेरे मन मसितष्क में अंकित है।

एक दिन की बात है, मैं और फ़ैज़ाबाद वाले अंकल जी नीचे फर्श पर बैठे थे। बाबा लकड़ी के तख्त पर बैठे थे। बाबा अनाप शनाप न जाने क्या क्या बोले जा रहे थे। किसी की समझ में एक शब्द भी नहीं आ रहा था। अचानक मेरी तरफ मुंह करके एक लीवर टानिक का खाली डिब्बा देते हुए बोले- मैं बड़ा परेशान हूँ। यह दवा लेकर आओ। मैं अंकल जी के साथ तमाम दवाखानों में गया। जिसे भी वह डिब्बा दिखाता वह यही कहता- इससे पहले हमने कभी इस दवा का नाम भी नहीं सुना। निराश होकर हम लौट आए। बाबा को बताया कि दवा नहीं मिली। उनसे जब जानना चाहा कि आपको परेशानी क्या है ? आप बताएं तो हम दूसरी दवा ले आएं। उन्होंने जो कारण बताया उसे सुनकर सब हंस दिए लेकिन मैं बहुत गम्भीर हो गया था।

वह मेरी ओर देखकर बड़बड़ाने लगे- लीवर खराब हो गया है। अभी दो महीने भी तो नहीं बीते कि पिछले सप्ताह मुझे शौच के लिए जाना पड़ा। अब मैं यहाँ नहीं रहूंगा। अब मैं तीर्थ करने जाना चाहता हूँ। यहाँ सब कुछ बेकार है। र्इश्वर को मत भूलो। उसे याद रखना। क्या योगी और क्या भोगी, सबको जाना है। क्या गुरु और क्या चेला। सबको जाना ही जाना है। उसके बाद वो मेरे चेहरे पर दृष्टि टिका कर बोले- दीक्षा वीक्षा हो चुकी- जैसा जिसने बताया, करते जाओ, करते जाओ। इसी बीच कुछ पलों के लिए मेरी दृषिट जैसे ही उनकी दृष्टि से मिली। मेरे पूरे बदन में जैसे बिजली का करन्ट लग गया था। शरीर की एक-एक नस में विद्ध्युतीय तरंगों के प्रवाह को मैंने स्पष्ट महसूस किया था। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रख कर मुझे आशीर्वचन दिए। बाद में मुझे लोगों ने बताया कि यह पहला अवसर है जब बाबा ने किसी के सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया हो।

घर आकर मैं सोचने लगा कर्इ-कर्इ सप्ताह शौच के लिए न जाना तो ऋषिकेश वाले सन्त जी के स्वभाव जैसा था। ऋषिकेश वाले सन्त जी के अनुसार यह मुझे दूसरे सन्त मिले थे। यह मुझे दीक्षा कैसे दे सकते थे। मैं अपने लेखकीय कार्य हेतु भ्रमण पर निकल गया। कुछ ही दिनों बाद बलरामपुर से डा0 अनिल गौड़ ने फोन से सूचना देते हुए फक्कड़ बाबा के निधन का समाचार दिया। मैंने मन ही मन उनके चरण स्पर्श किए। आज मुझे उनके तीर्थ जाने की बात समझ आ गर्इ थी। 

Monday 30 January 2012

र्इश्वर कोर्इ स्थूल या स्थापित की हुर्इ वस्तु का नाम नहीं है।

र्इश्वर कोर्इ स्थूल या स्थापित की हुर्इ वस्तु का नाम नहीं है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं - ßहे अर्जुन! र्इश्वर प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान है।Þ तब हम मूर्ख है जो उन्हें बाजार में खोजते हैं। हम अर्थहीन बाह्यक्रियायें करते रहते हैं, इसलिए नहीं कि हम उसमें किसी सच्चार्इ को देखते हैं, अपितु इसलिए कि हम उन्हें सदियों से करते चले आ रहे हैं।

अध्यात्मिकता असितत्व की वह स्वभाविक स्थिति है जिसे प्राप्त करके हम अपने अन्दर देखना प्रारम्भ करते हैं, सामान्य प्राकृतिक अवस्था को सामान्य प्राकृतिक रीति से ही माना जा सकता है। धार्मिक उत्सव गलत या बेकार नहीं होते] लेकिन वे केवल अध्यात्मिकता की ओर जाने वाला एक पग ही होता है। उनसे चिपके रहना ऐसा है, कि जैसा पुल पर घर बनाना। पुल बनाये जाते हैं उन पर से होकर पार जाने के लिए ना कि उन पर बस जाने के लिए। पिकनिक पर जायें तो सुन्दर दृष्यों का आनन्द ले सकते हैं लेकिन कोर्इ उन्हें देखते रहने के लिए वहां बस नहीं जाता है। उसी प्रकार अध्यात्मिकता भी ठहराव का नाम नहीं है। वह विकास की सतत प्रवाहमान प्रक्रिया का नाम है।

हम जब कुछ पढ़ते हैं तो शब्दों, विराम अर्धविराम चिन्हों को असत्य नहीं समझते हैं, उनसे अभिव्यक्त होने वाले भाव को ही हम ग्रहण करते हैं, क्योंकि भाव तक पहुँचने के लिए अक्षरों का सहारा नहीं लिया जा सकता। इससे प्रेम करने और गले लगाने की जरूरत है क्योंकि मुक्ति या मोक्ष इसके द्वारा हो आयेगा] इसके बाहर नहीं। कन्फयूशियस ने कहा कि बहुत लोग सुखों को मनुष्यों से ऊपर कही खोजते हैं, दूसरे मनुष्य इसे नीचे कहीं खोजते हैं, लेकिन सुख मनुष्य जितनी ऊँचार्इ पर ही है, ऊपर या नीचे नहीं। साधारण प्रतीत होने वाले प्रश्न भी कभी कभार बहुत महत्व के होते हैं, जैसे आप कौन है ? कहां से आये हैं ? और आप कहां जा रहे हैं ? तांग राजवंश के चीनी दार्शनिक ने स्वप्न देखा कि वह एक तितली था लेकिन उसके आगे वह यह निश्चित रूप से नहीं जान सका कि वह तितली नहीं था] जो कि चीनी दार्शनिक होने का स्वप्न देख रही थी। क्या हम निश्चय रूप से कहते सकते हैं कि हम कौन हैं ?

अध्यात्मिकता को प्राप्त करने का अर्थ यह नहीं है कि हमारे अस्थायी अस्तित्व के दु:खों और कष्टों से हमें मुकित मिल जायेगी अपितु यह दुखों के उन कारणों को दूर करना है जो हमारे विगत कर्मो के परिणाम स्वरूप अब उपस्थित हैं। यह भ्रमात्मक बात है कि अध्यात्मिकता भौतिक जीवन की विरोधी है] वास्तव में यह भौतिक जीवन को साथ लेकर चलती है। लेकिन दोनों में एक संतुलन होना चाहिए। पक्षी के दो पंखों की तरह यह दोनों भी हैं] जैसे पक्षी एक पंख से नहीं उड़ सकता उसी तरह आत्म साक्षात्कार की ओर हमारी प्रगति के मार्ग में भी अन्दर के विश्व और बाहर के विश्व के बीच का विरोधाभास मिट जाना चाहिए। दोनों ही र्इश्वरत्व की प्राप्ति के लिए एकीकृत साधन स्वरूप हैं

कुछ जगहों पर निर्धारित दिनों के बाद प्रतिज्ञा तोड़ने को और परित्याग किये गये सुखों को नये जोश के साथ पुन: चालू करने को धार्मिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है। एक पुरानी कहावत है कि प्रतिज्ञायें तोड़ने के लिए ही की जाती हैं - सच बन जाती हैं। जीवन के घटनाक्रम में र्इश्वर के प्रति भक्ति प्रदर्शित करने वाले ऐसे प्रकरण उसी प्रकार आते है जैसे नाटक में रुचि बनाये रखने के लिए हंसी-मजाक के दृष्य डाल दिये जाते हैं। लोग इस बात से स्वयं को संतुष्ट कर लेते हैं कि चालीस दिनों के सुखोपयोग के परित्याग से उन्होने र्इश्वर को खु कर लिया है। कुछ दिनों के सुखोपयोग का परित्याग करना, उसे तोड़ का पुन: चालू कर देना- एक अलग बात है] लेकिन यह मान लेना सरासर अशिष्टता या घृष्टता है कि उससे र्इश्वर प्रसन्न हो गया है। क्या र्इश्वर का अस्तित्व लोगों के पूजा और सुख त्याग के बिना खतरे में पड़ जायेगा ? र्इश्वर बिना पूजा या स्तुति के मरा नहीं जा रहा है। मानव के रूप में र्इश्वर की कल्पना र्इश्वर की नहीं हमारी बनार्इ हुर्इ है।

Saturday 28 January 2012

सुमिल ! तुमने सकारात्मक सोच के प्रभाव के बारे मे पूछा है।

पशुओं से प्रेम की भाषा का एक अनुभव याद आता है, विगत वर्ष मै गोरखपुर नगर से दस या बारह कि0 मी0 दूर रामगढ़ के वन विभाग के विश्रामालय मे ठहरा हुआ था। वहाँ के चौकीदार के द्वारा मुझे पता चल कि सुबह दिन निकलते ही जंगल के कुछ हिरण विश्रामालय के अति निकट आ जाते हें। चौकीदार उन्हें रात का बचा खुचा भोजन दे दिया करता था। मैंने चौकीदार से कहा सुबह तुम जब उन के पास जाना तो मुझे भी उनके पास ले जाना। उसने बताया कि साहब! हिरण अपरिचितों के पास नहीं आते। मैंने कहा कि प्रयास करूंगा। मेरा विश्वास है कि वो मेरे पास जरूर आएंगे. 
देर् रात तक मैंने उन अपरिचित हिरणो के बारे मे सकारात्मक सोच बनाई। सुबह तक उनके प्रति मन ही मन प्रेम कि भावना उत्पन्न करता रहा। सुबह सूर्योदय के समय मई चौकीदार के साथ उस स्थान तक गया जहां हिरण आते थे।  कुछ ही पलों मे मुझे हिरणों का झुंड आता दिखाई दिया। वे सभी कुछ फासले पर रुक कर हमारी ओर देखने लगे।
मै मन ही मन तरंगों के माध्यम से उन्हें अपने पास बुलाने का निमंत्रण देता रहा। मेरे आश्चर्य कि सीमा न रही जब मैंने एक हिरण को अपनी ओर आते देखा। मैंने एक हाथ में चने लेकर हाथ उसकी ओर बढ़ाया। वह धीरे धीरे पास आया ओर मेरी हथेली पर रखे चने खाने लगा। उसके बाद एक ओर हिरण आया। मैंने बहुत देर तक उन दोनों हिरणों को चने खिलाये तथा उनके सिर पर हाथ फेर कर उन्हे खूब प्यार किया।
कहने या लिखने कि आवश्यकता नहीं है कि सकारात्मक सोच और  प्रेम कि भाषा से उत्पन्न इस संबंध को वयक्त करने के लिए किन शब्दों का प्रयोग करूँ।
  

Sunday 22 January 2012

हाटी हिमाचल गिरिपार के आदिवासी हैं।


हाटी हिमाचल गिरिपार के आदिवासी हैं। जहां आज भी महाभारत कालीन सभ्यता (परम्परा) देखने को मिलती है। जैसे कि कई भाइयों की एक ही पत्नी का होना। जैसे कि महाभारत काल में पांडव बंधुओं की एक ही पत्नी थी। यह अपने को पांडवों के वंशज होना बताते हैं। मैंने तीन वर्ष का समय इनके साथ व्यतीत किया और गहन अध्यन के बाद एक पुस्तक तैयार की जिसमे लगभग सौ रंगीन चित्र हैं।
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Wednesday 11 January 2012

क्या बचपन इसी को कहते है ?




एक बार मै अपने टूर पर था। मै बलरामपुर से झालीधाम की ओर जा रहा था। रास्ते में एक छोटा सा कस्बा पड़ता है जिसका नाम ईंटियाठोक है। मेरे साथ रामू दादा भी थे। पत्ते भैया कार चला रहे थे। रास्ते मै एक स्थान पर सड़क निर्माण का कार्य चल रहा था। अचानक मेरी दृष्टि दो मासूम बच्चों पर पड़ी। उन्हें देख कर मेरा मन धक्क से रह गया। मैंने तुरंत कार रुकवाई। उन बच्चों का चित्र लिया। मेरा मन धक्क से क्यों रह गया ? इस चित्र को देखकर आप स्वएं सहज ही अनुमान लगा सकते हें। मै रास्ते भर यही सोचता रहा कि क्या बचपन इसी को कहते है ?
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Tuesday 10 January 2012

साकारात्मक सोच का एक और पाठ

बलरामपुर में मेरे आत्मीय जनों में से एक उमा शंकर श्रीवास्तव रहते थे। मूलत: वह फैजाबाद के रहने वाले थे। सिंचार्इ विभाग में अधिकारी थे। कविताएं लिखने का उन्हें बहुत शौक था। अंकल उनका तखल्लुस होने के कारण छोटे बड़े सभी उन्हें अंकल कह कर ही पुकारते थे। एक बार मुझे डा0 राना के पास जाना था। जल्दी पहुंचने के चक्कर में मैं अंकल के साथ बस स्टेशन से छोटे मार्ग की गलियों से होकर गुजर रहा था। थोड़ी ही दूरी पर एक साँड़ आता दिखार्इ दिया। मैंने उन्हें कहीं रुक जाने को कहा, ताकि साँड़ चला जाए। वास्तव में मैं साँड से बहुत डरता था। अंकल बोले- डरो मत, साँड़ के प्रति साकारात्मक सोच बना कर उसकी तारीफ करते हुए उसके बगल से गुजरे वह कुछ नहीं कहेगा। मैने उनसे मज़ाक में कहा- अंकल जी! वह कहेगा तो कुछ नहीं, बलिक कुछ करेगा (मारेगा) जरूर। अंकल रुके नहीं। मैं उनके पीछे-पीछे, डरा-सहमा, लेकिन उनकी आज्ञा का पालन करते हुए मन ही मन साँड़ की तारीफ करते हुए चलने लगा। साँड़ हमारे बगल से होकर गुजर गया। तब अंकल बोले- देखा यह होती है, साकारात्मक सोच।
कुछ ही दिनों बाद एक दिन अंकल के घर के सामने कुछ भीड़ दिखार्इ दी। वही साँड़ अंकल के पेट को अपने दोनों सींगों के बीच में फंसा कर उन्हें उनके गेट के साथ सटाए खड़ा था। अंकल उसे सहला रहे थे। भीड़ में से किसी ने डंडा लेकर आने और साँड़ को भगाने की बात की, तो अंकल ने मना कर दिया। कुछ मिनट बाद साँड़ बिना उन्हें कुछ नुकसान पहुंचाए चला गया। मैने उनसे पूछा कि- आप डरे नहीं। वे बड़े सहज भाव से बोले- उस दिन उसकी तारीफ की थी न, उसी का धन्यवाद करने आया था वह। मै सोच रहा था कि यदि उनके स्थान पर मैं होता तो निश्चित बेहोश हो गया होता। साकारात्मक सोच का एक और पाठ तो मैने सीख ही लिया था।

प्रसन्नता का अनुभव

बलरामपुर नगर में मुख्य मार्ग पर जो चौराहा है, उसे वीर विनय चौक के नाम से जाना जाता है। सन 2000 र्इ0 की बात है। बलरामपुर नया जिला बना था। मैं उस पर एक किताब 'सार संकलन बलरामपुर लिख रहा था। इस पुस्तक का व्यय भार बलरामपुर चीनी मिल के तत्कालीन ग्रुप जनरल मैनेजर र्इश्वर दयाल मित्तल द्वारा किया जा रहा था। उसी दौरान मैने काफी प्रयास करके वीर विनय की संक्षिप्त जीवनी एकत्र की थी। वह एक फौजी था। छोटी सी आयु में वह भारत पाक युद्ध में शहीद हुआ था। उसकी संक्षिप्त जीवनी चित्र सहित मैने बलरामपुर वाली किताब में प्रकाशित भी की थी। मैने ही श्री मित्तल जी को वीर विनय कायस्था की मूर्ति बनवा कर लगवाने हेतु प्रेरित किया। वह उसका व्यय भार उठाने को तैयार हो गये। मुझे लखनऊ भेज कर उन्होंने उसका अनुमानित व्यय बताने को कहा। मैने सारी जानकारियाँ एकत्र करने के बाद फार्इल मित्तल साहब को सौंप दी। यह पहला अवसर था कि जब लोगों ने उस किताब के माध्यम से विनय कायस्थ को चित्र से पहचाना था। उसी दौरान मित्तल साहब नौकरी छोड़कर अन्यत्र चले गए। वह फाइल और मेरी सोच, मेरा स्वप्न सब अधूरा रह गया।
इसके ठीक दस साल बाद मुझे पता चला कि नगर के एक सभ्रांन्त व्यक्ति जिसे लोग आजाद सिंह अथवा छोटे भैया के नाम से जानते हैं। उन्होने चीनी मिल के माध्यम से मेरे उस सपने अथवा मेरे उस अधूरे कार्य को पूरा करने का बीड़ा उठाया। यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुर्इ। वीर विनय की मूर्ति स्थापित करने की परियोजना हेतु आजाद सिंह की अध्यक्षता में कमेटी का गठन हुआ। पथिक होटल में बैठकों का आयोजन होता रहता। जिले के गाँव-गाँव से सहयोग प्राप्त करने पर बल दिया जाने लगा। धीरे-धीरे कार्य रेंगने लगा और एक दिन मूर्ति स्थापित भी हो गर्इ। मूर्ति स्थापना के प्रारम्भ से लेकर उसकी स्थापना के समय तक] मेरा जब भी कभी अचानक आजाद सिंह से आमना सामना होता, वे मेरी बड़ी तारीफ करते, चाय पिलाते] पास बैठाते। यह अलग बात है कि उस परियोजना के प्रारम्भ से अन्त तक उन्होंने अपनी सोच और अपनी बैठकों से मुझे बहुत दूर रखा। लेकिन सत्यता यह है कि जब भी कभी उस वीर पुरुष का जिक्र आता है, मेरा सिर आजाद सिंह के लिए नतमस्तक हो जाता है। मैं उन्हें पहले से कहीं अधिक सम्मान देता हूँ, अपने भीतर उनके प्रति आदर की भावना रखता हूँ, क्योंकि उन्होंने मेरे अधूरे कार्य को पूर्ण किया है। इस बात की प्रसन्नता का अनुभव शायद मेरे सिवा अन्य किसी को न  होता।

याद किया और घंटी बजी 4

लखनऊ में दत्ता साहब का परिवार रहता है। लगभग पचीस साल से अधिक पुराना उनसे सम्बन्ध है। यह अलग बात है कि जिसके माध्यम से मेरा उनसे संबंध स्थापित हुआ था उसे दुनिया से गए लगभग बारह वर्ष होने को हैं। लेकिन उस परिवार से  मेरा लगाव ज्यों का त्यों है। जैसे कि प्रत्येक व्यकित के जीवन में कभी न कभी कुछ दिन संघर्ष भरे अवश्य होते हैं। उसी प्रकार मेरे जीवन में जब संघषोर्ं के बादल छाए, तब दत्ता परिवार एक छाते के भांति मेरे साथ रहा। उनका वह अदृश्य छाता मैं अपने अन्तस में सदैव अपने साथ पाता हूँ। उनके घर के प्रत्येक सदस्य के लिए मैंने एक साकारात्मक सोच बना रखी है कि उन सबके विचार मेरे प्रति कैसे हैं, मुझे इससे कोर्इ मतलब नहीं। हाँ! इतना अवश्य चाहता हूँ कि जब उन्हें छोटी बड़ी किसी समस्या जैसे बादल दिखार्इ दें तो उस समय छाता मेरा ही हो। मैं पिछले कुछ दिनों से महसूस कर रहा था कि श्रीमती दत्ता मानसिक रूप से बहुत परेशान हैं। मैं उनकी मानसिक शानित के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता हूँ। एक दिन रात के ग्यारह बजे से कुछ अधिक समय रहा होगा। मुझे बार बार श्रीमती दत्ता का ध्यान आ रहा था, लगता था जैसे कुछ परेशानी में हैं। इसी सोच में डूबा था कि मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी। उधर से श्रीमती दत्ता फोन पर थीं। मेरे हेलौ कहते ही उधर से सिसकियों की आवाज सुनार्इ दी। उसके बाद का लिखना आवश्यक नहीं बस इतना ही काफी है कि मेरे छाते की अब उन्हें तीव्र आवश्यक्ता थी। ऐसे न जाने कितने अनुभव हैं। सब लिखने लगूँ तो एक अलग पुस्तक ही इस तैयार हो जाएगी।

याद किया और घंटी बजी


कुछ महीने पहले की बात है। मैं हिमाचल गिरिपार का हाटी समुदाय विषय पर पुस्तक लिख रहा था। लिखते लिखते किसी विषय पर मुझे पांवटा निवासी श्री राजेन्द्र तिवारी जी की सहायता की आवश्यक्ता पड़ी। मैंने उन्हें फोन मिलाया। कर्इ बार मिलाने पर भी उधर से सिवच आफ होने की सूचना मिल रही थी। तीन दिन बीत गए पर फोन नहीं मिला। चौथे दिन फिर उसी विषय पर मुझे उनकी जरूरत का अहसास हुआ। मैंने यह सोच कर फोन उठाया कि यदि अब उनसे बात न हो पार्इ तो इस विषय को ही पुस्तक से निकाल दूंगा। मोबाइल सेट हाथ में लेकर जैसे ही तिवारी जी का नम्बर डायल करने लगता हूँ कि नम्बर मिलाने से पूर्व मोबाइल की घंटी बज उठी। देखा तो तिवारी जा का फोन आ रहा था। इस सन्दर्भ में बलरामपुर निवासी रामू दादा की चर्चा करनी आवश्यक है। हमारे बीच अक्सर यह होता था कि जब कभी मोबाइल सेट हाथ में लेकर जैसे ही वह मेरा नम्बर मिलाने लगते तो मैं उनके दरवाजे पर होता। तब वे मिलाया गया नम्बर दिखाते कि देखो तुमको ही मिला रहा था। कर्इ बार मैं उनका नम्बर मिलाने लगता तो देखता कि वह मेरे दरवाजे पर होते। उस समय हैरानी पूर्वक मैं उन्हें अपने द्वारा मिलाया गया नम्बर दिखाता और कहता- देखिए, मैं आपका नम्बर ही मिला रहा था।

सोच विचार की तरंगें 3


लखनऊ में मेरे एक परिचित है जिनका नाम है हर्ष। उनकी पत्नी का नाम है पूजा। एक बार मेरा लखनऊ में प्रवास था। मै पूर्वा नामक एक महिला की  जन्मपत्री का अध्ययन कर रहा था। रात के दस बजने को थे। मैं पूरे मन से उसकी जन्मपत्री के अध्ययन में डूबा हुआ था। पूर्वा नाम याद आते ही सहसा मुझे पूजा का ध्यान आ गया। कुछ क्षणों के लिए मेरी सोच की ओर घूम गर्इ। पूजा की जन्मपत्री के आधार पत्र मैंने उसे बताया कि इस समय सीमा के भीतर उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा, ध्यान रखना। काफी समय से उनके घर नहीं गया था। ना ही उनसे फोन वार्ता हो पार्इ थी। किसी दिन समय मिलेगा तो उनके घर हो आऊंगा। इस विचार से मैंने अपने सिर को झटक कर पुन: पूर्वा की जन्मपत्री पर ध्यान देने का प्रयास किया। तभी मेरे मोबाइल फोन की घंटी बजी तो देखा हर्श का नम्बर था। उधर से पूजा की आवाज सुनार्इ दी-आप कहाँ हैं ? मैने कहा कि लखनऊ, सिंह साहब की कोठी में। खैरियत तो है; पूजा ने कहा- हम लोग हनुमान सेतु मनिदर से लौट रहे हैं। आपका ध्यान आया। यदि आप जाग रहे हों तो हम आपसे मिलते हुए घर चले जाएंगे। मैंने उन्हें बुलवा लिया। कुछ देर बैठने के बाद जब वो जाने लगे तो मैंने उन दोनों से कहा- जिस सोच या भावना से डूब कर आप लोग आएं हैं, उसी भावना में डूब कर वापस जाइयेगा, ताकि मेरे कमरें में बिखरे अस्त व्यस्त सामान की ओर आपका ध्यान न रहे। वास्तव में कमरे के अस्त-व्यस्त बिखरे सामान की कुछ शर्मिन्दगी भी थी। लेकिन यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि पूर्वा से पूजा पर सोच या विचार का जाना और तत्काल उस तक पहुंचना। यह भी सोच विचार की तरंगों का एक पाठ था।

सोच की भाषा 2

बलरामपुर में सत्यम स्टूडियो के नाम से एक दूकान है जहाँ शादी विवाह आदि की वीडियो फिल्म की मिकिसंग का काम होता था। चार पाँच कम्प्यूटर पर चार पाँच लड़के काम किया करते थे। उनमें एक लड़की भी थी। काफी बाद में पता चला कि उसका नाम रुचि पाण्डेय था। स्टूडियो का मालिक शिवनाथ मेरा परिचित था। एक बार मैं उसके स्टूडियो में बैठा था। सभी अपने अपने अपने काम में व्यस्त थे। मै और शिवनाथ चाय पीते हुए बातें भी कर रहे थे। उस लड़की की पीठ मेरी ओर थी अत: मैं उसका चेहरा नहीं देख सकता था। हाँ उसके द्वारा किया जा रहा काम, जो कि कासिटंग में दिए जाने वाले नाम थे, उसे टाइप कर रही थी और वह मुझे मानीटर पर स्पष्ट दिख रहे थे। अचानक वह उठी बाहर गर्इ और दो तीन मिनट बाद लौट कर पुन: अपने कार्य में व्यस्त हो गर्इ। तब मैने उसका चेहरा देखा था। वह बाइस से चौबीस वर्षीय खूबसूरत गौरवर्णीय युवती थी। उसको देखने के बाद सहसा मेरे दिमाग में एक प्रश्न उत्पन्न हो गया। मै सोच रहा था कि यह लड़की यदि यहाँ कम्प्यूटर सीख रही है तो अपना समय बर्बाद कर रही है। क्योंकि जो वह सीख रही वह उसे कभी नहीं सीख सकेगी। उसका मानसिक स्तर उसके द्वारा टाइप किए जाने वाले काम से अनुमानित किया जा सकता है। फिर यदि वह सीख भी गर्इ तो उसके किसी काम का नहीं। क्योंकि बलरामपुर में वीडियो मिकिसंग का कोर्इ भविष्य नहीं है। कहीं बाहर जाकर काम करना भी इसके वश के बाहर होगा क्योंकि इस क्षेत्र के लोग लड़कियों को नौकरी तो क्या उच्च शिक्षा हेतु भी बाहर भेजना पसन्द नहीं करते। कुछ ही पलों में अपनी इस सोच से बाहर आ गया कि मैंने इससे क्या लेना देना है। इसे समझाने का या कुछ कहना न तो मेरे अधिकार क्षेत्र में है, और न उचित ही है। हा,ँ कभी मुझसे राय ली तो समझा दूंगा। कुछ देर बाद मैं घर चला आया। इसके पाँच छ: दिन बाद एक दिन दरवाजे पर आहट हुर्इ। दरवाजा खोलते ही आगन्तुक को देख कर मैं आश्चर्य चकित रह गया। मेरे सामने वही कम्प्यूटर वाली लड़की खड़ी थी। उस युवती को बैठा कर मैने पड़ोसी की लड़की प्रिन्सी को आवाज दी जो कभी कभी मेरी चाय बना दिया करती थी। प्रिन्सी ने उसके लिए चाय पानी का प्रबन्ध किया।
उसी समय लखनऊ से मेरे मित्र राजा डी0 पी0 सिंह आ गए। उस युवती का परिचय कराते हुए मैने उनसे इतना ही कहा इनसे मेरी प्रथम भेंट है, और मैं इनका नाम भी नहीं जानता और इनके यहाँ आने का प्रयोजन से भी मैं अनभिज्ञ हूँ। अच्छा यही है कि हमारी वार्तालाप में आप भी शरीक हो जांए ताकि आपको बोरियत न हो। उस युवती ने राजा साहब को अपना नाम बताया तो मुझे उसका नाम पता चला। उसने राजा साहब को जो कुछ बताया उसका सारांश यह था कि उसने मुझे पहली बार उस स्टूडियो में देखा था। मेरी और शिवनाथ की बातों को बड़े ध्यान से सुन रही थी। रात को जब वह सोने चली तो उसे मेरा ध्यान आया और उसी के साथ एक सोच उभर कर आती कि यही मुझे सही दिशा प्रदान करेंगे। यह सिलसिला उस दिन से लगातार चल रहा था कि मैं बख्शी सर का पता पूछते-पूछते आज यहाँ तक पहुंच गर्इ हूँ। मैंने राजा साहब को समय देना था इसलिए मैने उसे अगले दिन आने को कहा और उसे विदा करना चाहा। जब वह जाने लगी तो राजा साहब ने उसे रोककर कहा- जहां तक मेरा मानना है तुम सही जगह आर्इ हो। तुम्हें सही सलाह मिलेगी। मैं इन्सानों के भीतर छिपी प्रतिभा को परखने में कभी चूक नहीं करता। यहाँ, इनके आया हूँ, तो कुछ सोच कर। कल से तुम एक नर्इ जिन्दगी शुरू करोगी।
रुचि चली गर्इ। अगले दिन वह आर्इ तो उसने वही सब बताया जो उस दिन स्टूडियो मैं बैठा सोच रहा था। वह बी00 पास थी। आगे की पढ़ार्इ बन्द थी। माँ बाप कहीं बाहर भेजने को तैयार न थे। उनसे विद्रोह करके मैंने कम्प्यूटर सीखना चाहा। यहां जो सिखाया जा रहा है वह मेरी समझ में नहीं आता। मैने उसे समझाया कि अगर कम्प्यूटर सीखना चाहो तो बलरामपुर में ये-ये लोग विधिवत सिखाते हैं। जाकर उचित कोर्स करो। अच्छा यही है कि एम00 और बी0एड0 की पढ़ार्इ करो और शिक्षक बन जाओ, जो तुम्हारे लिए सरल और उचित भी है। यह मेरा फोन नम्बर है जब भी जरूरत पड़े सलाह ले लेना। जब तक मेरा बलरामपुर प्रवास रहा वह यदा कदा आती रही। उसे मैने प्राण ध्यान सिखाने हेतु शिष्य भी बनाया। बाद में फोन द्वारा वह मुझसे दिशा निर्देश लेती रही। अभी तक कुछ दिन पहले उसके फोन द्वारा पता चला कि उसने एम00 कर लिया है और बलरामपुर के किसी स्कूल में शिक्षिका के पद पर कार्यरत है। इन दिनों भी कभी-कभी मेरे मोबाइल सेट में उसकी मिस काल दिखार्इ दे जाती है। लेकिन मै उसका फोन अब उठाता नहीं, इधर से कभी मिलाता नहीं। जानता हूँ, उसका पहला वाक्य यही सुनार्इ देगा-सर आप बलरामपुर कब आंएगे। दूसरा यह भी कि वह अपनी मंजिल पा चुकी है। वह अपने बनाए शब्दों द्वारा कृतज्ञता अर्पित करना चाहती है, जिसका मेरे लिए कोर्इ मूल्य नहीं है।