अन्तस की यात्रा
समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।
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Tuesday 31 January 2012
बाबा ने कहा- यहाँ सब कुछ बेकार है, अब मुझे तीर्थ जाना है।
Monday 30 January 2012
र्इश्वर कोर्इ स्थूल या स्थापित की हुर्इ वस्तु का नाम नहीं है।
Saturday 28 January 2012
सुमिल ! तुमने सकारात्मक सोच के प्रभाव के बारे मे पूछा है।
Sunday 22 January 2012
हाटी हिमाचल गिरिपार के आदिवासी हैं।
Wednesday 11 January 2012
क्या बचपन इसी को कहते है ?
एक बार मै अपने टूर पर था। मै बलरामपुर से झालीधाम की ओर जा रहा था। रास्ते में एक छोटा सा कस्बा पड़ता है जिसका नाम ईंटियाठोक है। मेरे साथ रामू दादा भी थे। पत्ते भैया कार चला रहे थे। रास्ते मै एक स्थान पर सड़क निर्माण का कार्य चल रहा था। अचानक मेरी दृष्टि दो मासूम बच्चों पर पड़ी। उन्हें देख कर मेरा मन धक्क से रह गया। मैंने तुरंत कार रुकवाई। उन बच्चों का चित्र लिया। मेरा मन धक्क से क्यों रह गया ? इस चित्र को देखकर आप स्वएं सहज ही अनुमान लगा सकते हें। मै रास्ते भर यही सोचता रहा कि क्या बचपन इसी को कहते है ?