अन्तस की यात्रा

Dedication : This blog is dedicated tothose great spirits(Sants), who following the tradition of Guru Shishya, deemed me worthy of attention and introduced me to PRAN DHYAN, the method of simplest and highest form of meditation. Where direct and indirect blessings are always with me, by the path shown by the them. With the effect that I guide and sport those who arementally disturbed in some forms and are in search of peace. In life through positive thinking and meditation I have come back to my self. If you like tocome, you’re. Note: I only show you the way, you only have to walk. You will only receive sensations. Come to thy self increase your self power. click here for English version


समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।
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Tuesday 10 January 2012

जिस खिड़की से मैने कड़कती बिजली देखी, वर्षा देखी, चान्दनी देखी थी, अब उसी से सूरज की रोशनी देख रहा हूँ।

एक बार मै गोरखपुर के टूर पर था। उस समय मै उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीर बहादुर सिंह की बायोग्राफी लिख रहा था।

गोरखपुर में मेरे एक परिचित पी0 के0 श्रीवास्तव रहते हैं। आज से लगभग 15-20 वर्ष पूर्व हम लोग कस्बे के एक ही मुहल्ले में आमने सामने रहते थे। उनकी पत्नी और मेरी पत्नी में बड़ी घनिष्ठता थी। उनके दोनों बच्चे नेहा और राहुल मेरी पत्नी द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में ही पढ़ते थे। एक तरह से हमारे उनसे पारिवारिक घनिष्ठ सम्बन्ध थे। गोरखपुर में उनका निजी मकान था तथा श्रीवास्तव जी मनकापुर में किसी बैंक में प्रबन्धक थे। वे प्रत्येक शनिवार को मनकापुर से गोरखपुर जाते और सोमवार की प्रात: चले जाते। उनसे मिलने की मेरी इच्छा थी। अपने परिचितों के माध्यम से मैने उनका मोबाइल नं0 खोज निकाला। सम्पर्क करने पर पता चला कि वे गोरखपुर में ही है। बल्कि उन्होंने रविवार को घर आने का विशेष आग्रह किया क्योंकि उस दिन उनकी बेटी नेहा का जन्म दिवस था।

पिछले पाँच दिनों से मैं नगर के होटल शिवाय में ठहरा हुआ था। मै बहुत ही सादा भोजन लेने का तथा शहर से कुछ दूर शान्त वातावरण में रहना अधिक पसन्द करता हूँ। मैने शनिवार की शाम को वन मंत्री फतेहपुर बहादुर सिंह के छोटे भार्इ जितेन्द्र बहादुर सिंह को फोन करके अपनी इच्छा से अवगत कराया कि मेरे रहने की व्यवस्था कहीं शान्त वातावरण में कर दें। मेरे क्षेत्र भ्रमण और ठहरने का दायित्व उन पर था। उन्होने बताया कि कल से मेरे ठहरने की व्यवस्था नगर से 10-12 किमी दूर रामगढ़ के वन विभाग के विश्रामालय में कर दी गर्इ है जो कि चारों ओर जंगल से घिरा है। शाम को जितेन्द्र ने कार भेज दी। मैने अपना सामान उसमें रखवा दिया। होटल छोड़कर मैं शान्त वातावरण में रहने के लिए चल दिया।

कार मैं बैठते ही मुझे ध्यान आया कि मुझे पी0 के0 श्रीवास्तव के घर जाना है। अभी नहीं गया तो कठिनार्इ होगी। कार तो मुझे छोड़कर वापस चली आएगी। मैने पी0 के0 को फोन करने के उददेश्य से जेब से मोबाइल फोन निकाला। मोबाइल फोन हाथ में लेते ही अर्थात उनका नम्बर मिलाने के पूर्व ही उधर से पी0 के0का ही फोन आ गया। मैने फोन ड्राइवर को दे दिया ताकि वह आसानी से उनके घर का रास्ता समझ ले। कुछ ही देर में मैं उनके घर पर था। सभी लोग बड़ी आत्मीयता से मिले। वे बार-बार मेरी बेटी का हाल पूछते रहते। नेहा ने शैली का मोबाइल नम्बर नोट किया। नेहा की मम्मी ने जब आग्रह करते हुए शैली से मिलवाने की इच्छा प्रकट की तथा उससे फोन पर बात करवाने को कहा। मैने उनसे बताया कि वह ऋषिकेश में है पता नहीं वापस लौटी है या नहीं। अभी वाक्य पूरा ही किया था कि उधर से शैली का फोन आ गया। घर के प्रत्येक सदस्य ने शैली से बात की। वे सब बातें करने में आनन्द ले रहे थे और मै विचारों की शकित द्वारा उत्पन्न तरंगों पर सोच रहा था। तरंगों की यही भाषा आत्माँए भी समझती हैं। क्षण भर में ही सैकड़ों कि0मी0दूर बैठे व्यकित से बिना मुख से कुछ बोले बिना किसी को देखे, विचारों की भाषा तरंगों के रूप में परिवर्तित होकर भावनाओं का आदान प्रदान कर लेती है। आवश्यकता है इसे और सशक्त करने की।

उसके अगले दिन सामग्री संकलन हेतु मैं दिन भर 'आज अखबार के पुराने अंकों को खंगालता रहा। शाम को लगभग 7 बजे मुझे बन विभाग के रामगढ़ विश्रामालय पहुंचाने के लिए कार आ गर्इ। जब हमारी गाड़ी पक्की सड़क छोड़कर जंगल की कच्ची सड़क पर चलने लगी तो यकायक अांधी आ गर्इ। तेज वर्षा होने के भी आसार नजर आ रहे थे। मुझे ऐसा लगा कि ड्राइवर के मुख के भाव व्यक्त कर रहे थे कि वह भीतर से बहुत परेशान है। मैंने उससे कारण जानना चाहा। ड्राइवर का नाम राधेश्याम सानी था। उसने बताया कि-साहब मीटर बता रहा है कि डीजल समाप्त होने वाला है। तूफान जोरों पर है, किसी भी क्षण कोर्इ वृक्ष गिर सकता है जो हमें नुकसान पहुंचा सकता है। आपको सुरक्षित विश्रामालाय पहुंचाना मेरी प्रथम जिम्मेदारी है। यहाँ मोबाइल नेटवर्क भी नहीं है। मैने उससे कहा- राधेश्याम गाड़ी रोको। उसने गाड़ी रोक दी। गाड़ी रोकने के बाद वह मुझे हैरान सी दृशिट से देखने लगा। मैंने उससे कहा कि अब तुम समझ लो कि तुम्हारी गाड़ी का डीजल समाप्त हो चुका है। अब तुमको क्या करना है, वह सोचो। इतने में गाड़ी की हेडलाइट में मुझे नीलगायों का एक झुण्ड गुजरता दिखार्इ दिया। हम लोग लगभग पाँच मिनट तक उस घने जंगल में रुके रहे। पाँच मिनट बाद ड्राइवर बोला-साहब। शायद इतना डीजल हो कि हम लोग विश्रामालाय तक पहुंच ही जाँए।

ड्राइवर के भय को कम करने के लिए मैंने उसे समझाया-सानी। सबसे पहले तो तुम इस चिन्ता से मुक्त हो जाओ कि मुझे सुरक्षित पहुंचाने का दायित्व तुम्हारा है। तुम मेरे संग हो। तुम्हारी उपसिथति ही मेरा मानसिक बल है। यहाँ अगर कुछ तुम्हें हो गया तो मैं तुम्हारे लिए तत्काल कुछ नहीं कर सकूंगा और मुझे कुछ हो गया तो तुम भी कुछ नहीं कर सकोगे। जब हम एक दूसरे के लिए कुछ कर ही नहीं सकते तो उसके विशय में चिनितत होना व्यर्थ है। तुम गाड़ी स्टार्ट करो और केवल साकारात्मक सोचो कि तुमने मुझे विश्रामालय तक पहुंचाना है। पहुंच गए तो ठीक, वर्ना जितनी दूर तक भी पहुचेंगे,फासला उतना कम ही तो हो जाएगा। बात उसकी समझ आ गर्इ। उसने गाड़ी स्टार्ट की और चल पड़ा। मैंने महसूस किया कि वह पूर्ण रूप से सामान्य है और आत्मविश्वास से भरा हुआ है। वर्षा ने भी गति पकड़ ली थी। लगभग आधे घण्टे के भीतर उसने अपनी गाड़ी विश्रामालय के बरामदे से सटा दी और बोला- साहब! आप दरवाजा खोलकर अपना पाँव सीधे बरामदे में रखिए। उससे आप भीगेंगे नहीं। मैं भीगना नहीं चाहता था अत: वैसा ही किया।

बरामदे में रुक कर मैंने ड्राइवर को भी वहीं बुलवाया और कहा- सानी! तुम चाहो तो यहीं रुक जाओ। सुबह मैं डीजल की व्यवस्था करवा दूंगा, तब चले जाना। उसने झुककर मेरे पाँव छुएं और बोला- साहब! आज मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं घर पहुंच जाऊंगा। मुझे आज्ञा दीजिए। इतना कहकर वह पलक झपकते ही गाड़ी में जा बैठा। अगले ही क्षण उसकी गाड़ी विश्रामालाय का मुख्य द्वार पार कर चुकी थी।

इस विश्रामालाय में तीन कक्ष थे। आँधी पानी के कारण संभवत: कर्इ वृक्ष अथवा बिजली के खम्बे गिर गए होंगे, इसलिए बिजली नहीं थी। मैं कुछ थकान महसूस कर रहा था। मोबाइल की रोशनी में मैने कपड़े बदले और बिस्तर पर लेट गया।

पानी बरसने की आवाज आ रही थी। जब भी आकाश में बिजली चमकती तो खिड़की और रोशनदान से बिजली की तेज चमक से कुछ क्षणों के लिए पूरा कमरा प्रकाशमय हो उठता। अगले ही क्षण बादलों की गर्जना सिर से पाँव तक भय से कंपा देती।

एक दिन पहले की तो बात थी। मुख्य सड़क से विश्रामालाय के बरामदे के निकट तेज हवाओं से गिर पड़े सूखे पत्ते जब हल्की सी हवा से भी हिलते, तो उनकी आपसी रगड़ से उत्पन्न आवाज एक अजीब सा संगीत पैदा करते थे। और वह मुझे काफी प्रिय लगता। सुबह जब वर्षा की बून्दे ऊँचे-ऊँचे वृक्षों के पत्तों पर गिरतीं पड़तीं भूमि तक पहुंचतीं तो रात की नीरसता को भंग करता गीले पत्तों से उत्पन्न संगीत मन को स्पर्श कर जाता था। मैं पूर्णरूप से प्राकृति की गोद में था। मैं इसका भरपूर आनन्द लेना चाहता था। मैं इस वातावरण का आनन्द बहुत गहरार्इ से उठाने के मूड में था। मैंने अपने सामान को देखा और सोचा कि मेरे पास कीमती अथवा खो जाने के बाद दुखी करने वाला कौन सा सामान है। मैने पाया कि लेपटाप, डिजिटल कैमरा और मोबाइल फोन के अतिरिक्त कुछ ऐसा न था जिसके खो जाने का मुझे दुख होता। इसी मन्थन में व्यस्त था कि चपरासी ने मेज पर खाना लगाने की सूचना देते हुए कहा कि जब तक आप हाथ धोयेंगे तब तक मै जनरेटर चला कर आता हूँ। यह जनरेटर किसी विषेश अतिथि के आने पर ही चलाया जाता था। आज की रात कैसे व्यतीत करनी है, मै इसका निर्णय कर चुका था। जनरेटर चलने का अर्थ था बिजली का आना, और बिजली आने पर मैं लेपटाप पर व्यस्त हो जाता और प्राकृति की गोद में रहते हुए ऐसे आनन्दमयी वातावरण का लुत्फ उठाने से वंचित हो जाता। मैने जनरेटर चलाने से मना कर दिया। टार्च के प्रकाश में खाना खाया। बाहर बरामदे में बाँस से बनी चार कुर्सियाँ व मेज रखे हुए थे। मै एक कुर्सी पर बैठ गया। लगभग एक बजे तक वर्षा का आनन्द लेता रहा। वर्षा बन्द होने पर कमरे में आकर लेट गया। नींद कोसों दूर थी। मैंने अपने को बिल्कुल ढीला छोड़ दिया। चपरासी को बुलाकर अपना सारा सामान उसे किसी अन्य जगह सुरक्षित रखने को दे दिया। कमरे की सभी खिड़की दरवाजे खोलकर लेटे-लेटे खिड़की से बाहर का आनन्द लेता रहा।

वर्षा बन्द हो चुकी थी। कमरे की खिड़की से बाहर फैली चान्दनी में काले-काले वृक्ष दिख रहे थे। कब मैं नींद की आगोश में आ गया, पता ही नहीं चला। और जब आँख खुली तो देखा- रात को जिस खिड़की से मैने कड़कती बिजली देखी, वर्षा देखी, चान्दनी देखी थी, अब उसी से सूरज की रोशनी देख रहा हूँ।

अगली शाम मैं लौटकर विश्रामालाय पहुंचा। कपड़े बदलकर बाहरी बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ गया। आज कुछ ज्यादा ही थकान लग रही थी। मैं बाँस की कुर्सी पर पलथी मार कर बैठ गया और सिर कुर्सी के पिछले हिस्से से टिका कर विश्राम की मुद्रा में आ गया। कुछ ही मिनट बीते होंगे कि वहाँ का बूढ़ा चौकीदार मेरे पाँव छूते हुए बोला- साहब! साहब! आप आ गए अब हम्मैं शानित मिल गर्इ। इतना कहते हुए वह नीचे फर्श पर मेरे निकट ही बैठ गया। इससे पहले कि मैं उसकी इस हरकत से कुछ समझ पाता तभी वह खुद ही बोलने लगा- साहब तीस बरस से ज्यादा हो गया नौकरी करते। इतने सालों में सैकड़ों अधिकारी लोग यहाँ आए और गए। पर साहब! आज सुबह जब आप चले गए तब से हम भीतर से पता नहीं क्यूं बहुत परेशान रहे। आप जब तक रहे, लगा कि जैसे यहाँ भगवान का वास हो गया है। सारा दिन बहुत बेचैन रहा। साहब! अब आपको देखा तो लगा कि हमार भगवान आ गया। साहब! कलेजा मा बहुत शानित मिली है।

जब उसने बोलना शुरू किया तो मैने पहली बार उसे ध्यान से देखा और उसके भावों को समझने की कोशिश करने लगा। उसकी आयु मेरे विचार से साठ से अधिक थी। मैली सफेद धोती एवं मैला सा कर्इ स्थानों पर से फटा कुर्ता पहने हुए था। उसके चेहरा उसकी गरीबी और विवषता की कहानी स्पष्ट समझा रहा था। साथ ही तात्कालिक प्रसन्नता का भाव भी उसके चेहरे पर दिख रहा था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि वह स्थायी कर्मचारी नहीं है। लगभग दो हजार रूपये उसे मानदेय के रूप में मिलते थे वह भी आठ दस महीने बाद जाकर कहीं एक माह का भुगतान प्राप्त कर पाता था। किसी तरह जिन्दगी की गाड़ी को अनितम दिनों तक के लिए खींच रहा था। कुछ देर बाद उसने मुझे खाना खिलाया। खाना खाते हुए मैंने उससे पूछा कि तुम्हारा कुर्ता कितने रूपए में बन सकता है। उसने कहा साहब 30 रूपये के हिसाब से ढार्इ मीटर लगेगा। 75 रूपये लगते हैं। मैंने उसे सौ का नोट देते हुए कहा कि कल तुम एक कुर्ता बनवा लेना। मेरी नर्इ लुंगी जिसे मैंने अभी तक इस्तेमाल नहीं किया था, मेरे पास ही थी। वह भी उसको दे दी। इससे अधिक मैं उसके लिए कुछ करने में असमर्थ था।

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