अन्तस की यात्रा
समर्पण
यह ब्लॉग उन महान आत्माओं (संतों) को समर्पित है जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा के अंतर्गत मुझे इस योग्य समझा और प्राण ध्यान की विधि से मेरा परिचय कराया जोकि ध्यान की सबसे सरलतम एवं उच्चतम विधि है। उन महान संतों को, जिनका परोक्ष / अपरोक्ष आशीर्वाद सदैव मेरे सिर पर रहता है। इस आशय के साथ कि उनके द्वारा दिखाए मार्ग द्वारा मै उन लोगों का सहयोग करूँ जो किसी न किसी रूप में मानसिक रूप से परेशान हैं। जिन्हें शांति की तलाश है. सकारात्मक सोच और प्राण ध्यान के माध्यम से मै अपने पास वापस आ गया हूँ। यदि आप भी आना चाहें तो आपका स्वागत है। ध्यान रहे ! मै केवल आपको मार्ग दिखाऊँगा, चलना आप ही को पड़ेगा। अनुभूतियाँ आप ही को प्राप्त होंगी। अपने खुद के पास आइए, अपनी ऊर्जाशक्ति को बढ़ाईए।
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~ तुम्हारे लिए ~
ReplyDelete(उस संत को जिन्हे मैंने महसूस किया)
भृगुवंशी पवन बख्शी के लिए, ऊपर से आधुनिक से दिखने वाले परन्तु भीतर से एक संत।
हिमाचल की धरती पर
पड़े जब कदम तुम्हारे
मै जान सका तब
कि संत किसे कहते हैं।
मैने सोचा था
जब मिलेगी फुर्सत कभी
खेत खलियानों से
लिखूंगा कुछ ज़रूर
तुम्हारे लिए।
मै सोच मेँ डूबा
बुदबुदा रहा था कुछ
उदर मेँ उमड़ती घुमड़ती
तड़पाती वायु सी ज्यूँ
हिचकोले खाते भाव विचार
होड़ लगाएँ बाहर आने कि ज्यूँ
कलम, हाथ मेँ आते ही
शब्द, फूट पड़े अनायास ही
कलम कि जुबां से।
अंधविश्वासों से घिरी
रूढ़िवादियों की इस धरती पर
तुम्हारा आगमन
जैसे इक नयी विचार क्रांति का जन्म।
मूर्खों के जंगल मेँ
तुम्हारी बेबाक टिप्पणियाँ
एक बार तो कुछ अलग
सोचने को कर देती हैं मजबूर।
बात समझ आते ही लौटने लगते
चले गए थे छोड़ तुम्हें जो दूर।
मै खुद
जो कभी तुम्हारे निकट था
निकट से निकटतम हो गया
मैंने देखा है करीब से तुम्हें
स्वभाव से सहज, मृदुभाषी
कुछ संकोची पर संवेदनशील
निरंतर सक्रिय
अंतस (भीतर) की यात्रा मेँ।
जिस हद तक
मैंने जाना है तुम्हें
शांत मुखड़े के भीतर
छिपा है शायद कोई बवंडर
झंझावातों को कर सहन
आवरण खुशनुमा ओढ़े हुये
घर परिवार नाते रिश्ते
राग द्वेष अहंकार लालच को छोड़
निकल आए हो बहुत दूर
त्याग की भावना लिए
साधना के मार्ग पर।
मैने देखा है तुम्हें
इक त्यागी संत के रूप मेँ
मै हैरान रह जाता हूँ तब
जब किसी की आँखों मेँ झाँकते ही
बयां कर देते हो उसका लेखा जोखा
दूसरे के दुख दर्द देख
भूल जाते हो अपने को
अजूबा है या कोई सिद्धि
समझ नहीं मै पाता हूँ।
है बिनती प्रभु से मेरी
जो सीखी यात्रा अंतस (भीतर) की तुमने
हम सब को भी सिखला देना
उसी भावना से करें हम सेवा
जिस भावना से तुम हो करते।
तुमसे सीखें कुछ हम
हमसे सीखें कई और
चले सिलसिला यह अनवरत
तुमने तलाशा जिन आँखों मे कुछ
तलाश रहीं वो आँखें कुछ और
निकल पड़े हो उस पथ पर भी तुम
जानने उन तलाशती आँखों का ठौर.
इतना तो जान चुका हूँ मै
व्यर्थ है जीवन
बिन अंतस (भीतर) की यात्रा के।
मिला सकूँ जिनको तुमसे
देते दुआएं दीर्घायु की
बिन मांगे बिन बोले ही
सानिध्य तुम्हारा पाकर
कुछ तो मैंने पाया है तुमसे।
मन के भाव शब्द मेँ ढलकर
गीत बने या कविता
मेरे संत, मैने तुम्हें जाना ही नहीं
बल्कि महसूस किया है तुमको ।
मेरे संत
मेरे शब्द जो केवल तुम्हारे लिए हैं
तुम्हें समर्पित, तुम्हें समर्पण
शत शत नमन
एवं
चरण वंदन।
डा० के० तोमर
प्रवक्ता: राजकीय महाविद्यालय शिलाई (जिला सिरमौर)
दिनांक: 15 अप्रेल 2012
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